पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१७१

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पंचम अध्याय उत्तरोत्तर अधिकाधिक शान्त और सूक्ष्म होता जाता है। यहाँ तक कि यह दुर्लक्ष्य हो जाता है। इसी लिए इस कर्मस्थान में बलवती और सुविशदा स्मृति और प्रज्ञा की आवश्यकता है। सूक्ष्म अर्थ का साधन भी सूक्ष्म ही होता है । इसी लिए भगवान् कहते हैं कि जिसकी स्मृति विनष्ट हो गयी है और जो सम्प्रजन्य से रहित है, उसके लिए पानापान-स्मृति की शिक्षा नहीं है। अन्य कर्मस्थान भावना से विभूत हो जाते हैं, पर यह कर्मस्थान बिना स्मृति- सम्प्रजन्य के सुगृहीत नहीं होता। जो योगी इस समाधि की भावना करना चाहता है उसे एकान्त-सेवन करना चाहिये । शब्द ध्यान में कंटक होता है । वहाँ दिन रात रूपादि इन्द्रिय-विषयों की ओर भितु का चित्त प्रधाक्ति होता रहता है और इसीलिये इस समाधि में चित्त अारोहण करना नहीं चाहता। अत जन-समाकुल स्थान में भावना करना दुष्कर है। उमे अपने चित्त का दमन करने के लिये विषयों से दूर किसी निर्जन स्थान में रहना चाहिये । वहाँ पयंकवद्ध होकर सुख-पूर्वक श्रासन पर बैठना चाहिये और शरीर के ऊपरी भाग को सीधा रखना चाहिये। इससे चित्त लीन और उद्धत भाव का परित्याग करता है। इस तरह अासन स्थिर होता है और सुखपूर्वक आश्वास- प्रश्वास का ..मान होता है । इस अासन में बैठने से चमड़ा, मांस और स्नायु नहीं नमते और जो वेदना इनके नमन से क्षण-क्षण पर उत्पन्न होती, वह नहीं होती है । इसलिये चित्त की एकाग्रता सुलभ हो जाती है। और कर्मस्थान वाथि का उल्लंघन न कर वृद्धि को प्राप्त होता है। योगसूत्र में भी प्रासन की स्थिरता प्राप्त करने के अनन्तर ही प्राणायाम की विधि हैं (२१४E)। वहाँ भी श्रामन के संबन्ध में कहा गया है कि इसे स्थिर और सुखावह होना चाहिये। (स्थिरमुग्वमासनम् २।४६) इस सूत्र के भाव में कई श्रासनों का उल्लेख है। इनमें पर्थक-श्रासन भी है। पर इसका जो वर्णन वा-सति मिश्र की व्याख्या में मिलता है, यह पालि-साहित्य में वर्णित पर्यक-अासन में नहीं प्रस्ता। पालि के अनुसार पर्यक-श्रासन में बाई जाँघ पर दाहिना पैर और दाहिनी जांघ पर बायाँ पैर रखना होता है। यह पद्मासन का लक्षण है । प्रायः योगी इसी श्रासन का अनुष्ठान करते हैं। इसी पद्मासन को पालिसाहित्य में पर्यक-श्रासन कहा है। योगी पर्यक-बद्ध हो शासन की स्थिरता को प्राप्त कर विरोधी आलम्बनों का चित्त-द्वार से निवारण करता है। और इसी कर्मस्थान को अपने सम्मुन्त्र रखता है । यह स्मृति का कभी संमोष नहीं होने देता। वह स्मृति-परायण हो श्वास छोड़ता और श्वास लेता है। श्राश्वास या प्रश्वास की एक भी प्रवृत्ति स्मृति-हित नहीं होती, अर्थात् यह समस्त क्रिया उसकी जान में 1. ना भिक्सवे मुहस्सतिस्स असम्पजानस्स भामापान सतिभाषनं बदामीति । संयुक्त- निकाय, शा। २. काय और पिस की अवस्थाओं की प्रत्यवेक्षा 'सम्प्रजन्य' है। 1. पणन्ति समन्ततो अल्पशासनम् ।