पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१७२

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बौर-धर्मनांग होती है। जब वह दीर्घ श्वास छोड़ता है या दीर्घ श्वास लेता है तब वह अच्छी तरह जानता है कि मैं दीर्घ श्वास छोड़ रहा हूँ या दीर्घ श्वास ले रहा हूँ। स्मृति-बालम्बन के समीप सदा उपस्थित रहती है और प्रत्येक क्रिया की प्रत्यक्षा करती है। निम्नलिखित १६ प्रकार से प्राश्वास-प्रश्वास की क्रिया के करने का विधान है:- (१) यदि वह दीर्घ श्वास छोड़ता है तो जानता है कि मैं दीर्घ :वास छोड़ता हूँ, यदि वह दीर्घ श्वास लेता है तो बानता है कि मैं दीर्घ श्वास लेता हूँ। (१) यदि वह हस्व श्वास छोड़ता या हस्व श्वास लेता है, तो जानता है कि मैं हव श्वास छोड़ता या हस्व श्वास लेता हूँ। श्राश्वास-प्रश्वास की दीर्घ-हस्वता काल-निमित्त मानी जाती है। कुछ लोग धीरे- धीरे श्वास लेते और धीरे-धीरे श्वास छोड़ते हैं, इनका आश्वास-प्रश्वास दीर्घ-काल- व्यापी होता है। कुछ लोग जल्दी-जल्दी श्वास लेते और जल्दी-जल्दी श्वास छोड़ते है। इनका श्राश्वास-प्रश्वास अल्प-कालव्यापी होता है। यह विभिन्नता शरीर- खभाष वश देखी जाती है। मिनु ६ प्रकार से श्राश्वास-प्रश्वास की क्रिया को शान- पूर्वक करता है। इस प्रकार भावना की निरन्तर प्रवृत्ति होती रहती है। जब वह धीरे-धीरे श्वास छोड़ता है, तो जानता है कि मैं दीर्घ श्वास छोड़ता हूँ | जब वह धीरे-धीरे श्वास लेता है, तो जानता है कि मैं दीर्घ श्वास लेता हूँ। और जब धीरे-धीरे श्राश्वास-प्रश्वास दोनों क्रियाओं को करता है, तो जानता है कि मैं श्राश्वास-प्रश्वास दोनों क्रियाओं को दीर्घकाल में करता हूँ। यह तीन प्रकार केवल काल-निमित्त हैं। इनमें पूर्व की अपेक्षा विशेषता प्राप्त करने की कोई चेा नहीं पायी जाती। भावना करते-करते योगी को यह शुभ इच्छा (लंद ) उत्पन्न होती है कि मैं इस भावना में विशेष निपुणता प्राप्त करें। इस प्रवृत्ति से प्रेरित हो वह विशेष रूप से भावना करता है और कर्मस्थान की वृद्धि करता है । भावना के बल से भय और परिताप दूर हो जाते है और शरीर के आश्वास-प्रश्वास पहले की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म हो जाते हैं। इस प्रकार इस शुभ इच्छा के कारण वह पहले से अधिक सूक्ष्म आश्वास, अधिक सूक्ष्म प्रश्वास और अधिक सूक्ष्म श्राश्वास-प्रश्वास की क्रियाओं को दीर्घकाल में करता है । आश्वास-प्रश्वास के सूक्ष्मतर भाव के कारण बालम्बन के अधिक शान्त होने से तथा कर्मस्थान की वीथि में प्रतिपत्ति होने से भावना चित्त के साथ 'प्रामोद्या अर्थात् तरुण प्रीति उत्पन्न होती है । प्रामोद्य- वश वह और भी सूक्ष्म श्वास दीर्घकाल में होता है और भी सूक्ष्म श्वास दीर्घकाल में छोड़ता है तथा और भी सूक्ष्म आश्वास-प्रश्वास की क्रियाओं को दीर्घकाल में करता है । जब भावना के उत्कर्ष से क्रम-पूर्वक आश्वास-प्रश्वास अत्यन्त सूक्ष्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं, वब चित्त उत्पन प्रतिमाग-निमित्त की ओर ध्यान देता है। और इसलिए वह प्राकृतिक दीर्घ श्राश्वास- .. उपारहिये-यदि पुच्ची मंडलको निमित्त मानकर उसका ध्यान लिया जाप तो भावना के बळ से मारंभ में या निमित्त का उत्पादोवाट बाँसको या बाँसोकने पर इमानुसार मिमित कारोन होता है। पीने खता के साथ