पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१७३

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प्रश्वास से विमुख हो जाता है। प्रतिभाग निमित्त के उत्पाद से समाधि की उत्पत्ति होती है और इस प्रकार ध्यान के निप्पन्न होने से व्यापार का अभाव होता है और उपेक्षा उत्पन्न होती है। इन 8 प्रकारों से दीर्घ श्वास लेता हुश्रा या दीर्घ श्वास छोड़ता हुश्रा या दोनों क्रियाओं को करता हुश्रा योगी जानता है कि मैं दीर्घ श्वास लेता हूँ या दीर्घ श्वास छोड़ता हूँ या दोनों क्रियाओं को करता हूँ। ऐसा योगी इनमें से किसी एक प्रकार से कायानुपश्यना' नामक स्मृत्युपस्थान की भावना सम्पन्न करता है । ६ प्रकार से जो श्राश्वास-प्रश्वास होते हैं, उनको काया कहते है। यहाँ 'काय' समूह के अर्थ में प्रयुक्त हुश्रा है। श्राश्वास-प्रश्वास का आश्रयभूत शरीर भी 'काय' कहलाता है और यहां वह भी संगृहीत है। 'अनुपश्यना' शान को कहते हैं । यह शान शमथ-वश निमित्त-ज्ञान है और विपश्यना-वश नाम रूप की व्यवस्था के अनन्तर काम विषयक यथाभूत शान है। इसलिए 'कायानुपश्यना' वह ज्ञान है जिसके द्वारा काम के यथाभूत स्वभाव की प्रतीति होती है। जिसके द्वारा श्वास-प्रश्वास आदि शरीर की समस्त श्राभ्यन्तरिक और बाह्य क्रियायें तथा चेष्टायें ज्ञान और स्मृतिपूर्वक होती हैं। जिसके द्वारा शरीर का अनित्य-भाव , अनात्म-भाव, दुःख-भाव और अशुचि-भाव जाना जाता है । इस शान के द्वारा यह विदित होता है कि समस्त 'काया पैर के तलुवे से ऊपर और केशाय से नीचे केवल नाना प्रकार के मलों से परिपूर्ण है । इस काय के केश लोम आदि ३२ श्राकार अपवित्र और जुगुप्सा उत्पन्न करनेवाले हैं। वह इस काय को रचना के अनुसार देखता है कि इस काय में पृथ्वी-धातु है, तेज-धातु है, जन-धातु हैं और वायु-धातु है, वह काय में अहमाव और मम- भाव नहीं देखता तथा काय को कायमात्र ही समझता है इसी प्रकार जब वह जल्दी-जल्दी श्वास छोड़ता है या लेता है, तब जानता है कि मैं अल्पकाल में श्वास छोड़ता या लेता हूँ। इस हव आश्वास-प्रश्वास की क्रिया भी दीर्घ श्राश्वास-प्रश्वास की क्रिया के समान ही प्रकार से की जाती है, यहाँ तक कि पूर्ववत् योगी कायानुपश्यना नामक स्मृत्युपस्थान की भावना सम्पन्न करता है। 1 भाषमा करने से प्रतिभाग निमित्र का प्रादुर्भाव होता है। यह उद्मह-निमिस की अपेक्षा कहीं अधिक सुपरिशुद्ध होता है। प्रतिभाग-निमित वर्ण भोर आकार से रहित होता है, यह स्थूल पदार्थ नहीं है। प्रशसिमान है। .. स्मृत्युपस्थान चार *:-कापानुपरयना, वेदनानुपश्यमा, विचानुपरपमा और धर्मा- सुपरपना । शरीर का यथाभूत अवबोध कालानुपरपमा है। सुबवेदना, एसपेदना, बसवेदना का यथार्थ ज्ञान वेदनानुपश्यमा है। चित-ज्ञान पितानुपश्यना है। पार नीवरण, पाँच उपादान स्कंध, मायतन, • संयोजन, • बोभ्यंग, तथा चार पाल्पका पार्ष ज्ञान धर्मामुपायना है। मण्डिामभुत' में इन बार सत्युप. स्थानों विस्तार सेवन।