पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पंचममयाब के ग्रादि, स्पर्श द्वारा एक साथ अभ्यास किया जाता है। नत्र गणना का परित्याग कर स्मृति स्पर्श स्थान में ही अाश्वास-प्रश्वास का निरन्तर अनुगमन करती है और अनुबंधना के निरन्तर अभ्यास से अपंगा-समाधि के लिए चित्त एकाग्र होता है तब अनुबंधना, स्पर्श और स्थापना तीनों द्वारा एक साथ कर्म-स्थान का चिन्तन होता है। इसके अर्थ को स्पष्ट करने के लिए हम यहाँ अर्थ- कथा वणित पंगुल और द्वारपाल की उपमा का उल्लेख करेंगे। जिस प्रकार पंगुल ग्बो के पास बैठकर जिम समय बच्चों को झूला मुलाता है, उस ममय झूले के पटरे का अगला भाग (श्राते समय ), पिछला भाग (जाते.समय ) और मध्यभाग अनायास ही उसको दृष्टिगोचर होता है और इसके लिए उसे कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता; उमी प्रकार स्पर्श-स्थान ( = नामिकाग्र ) में स्मृति को उपस्थापित कर योगी का चित्त आते-जाते आश्वास-प्रश्वाम मध्य और अवसान का अनायास ही अनुगमन करता है। जिस प्रकार नगर का द्वारपाल नगर के भीतर और बाहर लोगों की पूछताछ नहीं करता फिरता किन्तु जो मनुष्य नगर के द्वार पर श्राता है उसकी जांच करता है, उसी प्रकार योगी का चित्त अंत:-प्रविष्ट वायु और बहिनिष्क्रान्त वायु की उपेक्षा कर केवल द्वार-प्राप्त अाश्वाम-श्य का अनुगमन करता है। स्थान-विशेष पर स्मृति को उपस्थापित करने से त्रिया सुलभ हो जाती है, कोई विशेष प्रयत्ल नहीं करना पड़ता । 'पटि सम्मिदा में पारे की उपमा दी गई है। जिम प्रकार आरे से काटते समय वृक्ष को समतल भूमि पर रखकर क्रिया की जाती है और बाते-जाते आरे के दांतो की ओर ध्यान न देकर जहाँ-जहाँ आरे का दाँत वृक्ष का स्पर्श करते हैं, वहां-वहाँ ही स्मृति उपस्थापित कर आते- आते बारे के दांत जाने जाते हैं और प्रयत्न-वश छेदन की क्रिया निष्पन्न होती है और यदि कोई विशेष प्रयोजन हो तो वह भी संपादित होता है, उसी प्रकार योगी नासिकान या उत्तरोष्ठ में स्मृति को उपस्थापित कर सुखासीन होता है । आते-जाते आश्वास-प्रश्वास की ओर ध्यान नहीं देता । किन्तु यह बात नहीं है कि वे उसको अविदित हो, भावना को निष्पन्न करने के लिये यह प्रयत्नशील होता है, विघ्नों (-नीवरण) का नाश कर भावनानुयोग साधित करता है और उत्तरोत्तर लौकिक तथा लोकोत्तर-समाधि का प्रतिलाभ करता है। काय और चित्त वीर्यारंभ से भावना कर्म में समर्थ होता है; विनों का नाश और वितर्क का उपशम होता है; दश संयोजनों का परित्याग होता है, इसलिए अनुशयों का लेश-मात्र भी नहीं रह जाता । इस कर्मस्थान की भावना करने से थोड़े ही समय में प्रतिभाग-निमित्त का उत्पाद होता है और ध्यान के अन्य अङ्गों के साथ अर्पणा-समाधि का लाभ होता है । जत्र गणना-क्रिया-वश स्थूल श्राश्वास-प्रश्वास का क्रमश निरोध होता और शरीर का केश दूर हो जाता है, तब शरीर और चित्त दोनों बहुत हल्के हो जाते हैं। अन्य कर्मस्थान भावना के बल से उत्तरोत्तर विभूत होते जाते हैं। किन्तु यह धर्मस्थान अधिकाधिक सूक्ष्म होता जाता है। यहां तक कि यह उपस्थित भी नहीं होता। जब कर्मस्थान १२