पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१७८

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की उपलब्धि नहीं होती तो योगी को आसन से उठ जाना चाहिये। पर यह विचार कर न उठना चाहिये कि श्राचार्य से पूछना है कि क्या मेरा कर्मस्थान नष्ट हो गया है। ऐसा विचार करने से कर्मस्थान नवीन हो जाता है । इसलिए अनुपलब्ध श्राश्वास-प्रश्वास या पर्यावरण प्रकृत स्पर्श-स्थान वश करना चाहिये। जिसकी नाक बड़ी होती है, उसके आश्वास-प्रश्वास प्रवर्तन के समय नासिकाग्र का स्पर्श करते हैं और जिसकी नाक छोरी होती है उसके श्राश्वास- प्रश्वास उत्तरोध का स्पर्श कर प्रवर्तित होते हैं। स्मृति-सम्प्रजन्य पूर्वक योगी को प्रकृत स्पर्श- स्थान में स्मृति प्रतिष्ठित करनी चाहिये । प्रकृत स्पर्श-स्थान को छोड़कर अन्यत्र पर्यषण न करना चाहिये । इस उपाय से अनुपस्थित श्राश्वास-प्रश्याम की सम्यक् उपलब्धि में योगी समर्थ होता है। भावना करते करते प्रतिभाग-निमित उत्पन्न होता है। यह किमी को मर्माण के सदृश, किमी को मुक्ता, कुमुममाला, धुम-शिखा, पद्मपुष्प, चन्द्र-मण्डल का सूर्य मण्डल के सदृश उपस्थित होता है। प्रतिभाग-निमित्त की उत्पत्ति संज्ञा से ही होती है। इसलिए मंज्ञा की विविधता के कारण कर्मस्थान के एक होते हुए भी प्रतिभाग-निमित्त नानारूप से प्रकट होता है । जो यह जानता है कि प्राश्वास-प्रश्वास और निमिन एक चित्त के पालन नहीं हैं, उसी का कर्मस्थान अनार और अर्पणा-ममाधि का लाभ करता है। प्रतिभाग-निमित्त के इस प्रकार उपस्थित होने पर योगी को इसकी सूचना आचार्य को देनी चाहिये । प्राचार्य, भिक्षु के उत्साह को बढ़ाते हुए बार-बार भावना करने का उपदेश करता है। उक्त प्रकार के प्रतिभाग- निमित्त में ही अनुबंधना और स्पर्श का परित्याग कर भावना-चित्त की स्थापना की जाती है। इस भावना से क्रम पूर्वक अर्पणा होती है। प्रतिभाग-निमिन की उत्ति के समय से विघ्न जाते हैं, स्मृति उपस्थित होती है और चित्त उपचार-समाधि द्वारा समाहित होता है। योगी को उक्त प्रतिभाग-निमित्त के वर्ण और लक्षण का ग्रहण न करना चाहिये। निमित्त की अच्छी तरह रक्षा करनी चाहिये । इमलिए अनुपयुक्त आवाम ग्रादि का परित्याग करना चाहिये । इस प्रकार निर्मित की रक्षा कर निरंतर भावना द्वारा कर्मस्थान की वृद्धि करनी चाहिये । अर्पणा में कुशलता प्राप्त कर, वीर्य का सम-भाव प्रतिपादित करना चाहिये। तदनन्तर ध्यानों का उत्पाद करना चाहिये । इस प्रकार ध्यानों का उत्पाद कर जो योगी संलक्षणा ( = विपश्यना, इसे अभिधर्मकोश में 'उपलक्षण' कहा है ) और विवर्त्तना (= मार्ग ) द्वारा कर्मथान की वृद्धि करना चाहता है और परिशुद्धि (= मार्गफल) प्राप्त करना चाहता है, उसे पांच प्रकार से ( श्रावर्जन, समङ्गी होना, अधिष्ठान, व्युत्थान और प्रत्यवेक्षण) ध्यानों का अभ्यास करना चाहिये । और नाम-रूप की व्यवस्था कर विपश्यना का प्रारंभ करना चाहिये । योगी सोचता है कि शरीर और चित्त के कारण श्राश्यास-प्रश्वास होता है; चित इनका समुत्थापक है और शरीर के बिना इनका प्रवर्तन संभव नहीं है। वह स्थिर करता है कि श्राश्वास-प्रश्वास और शरीर रूप है और चित्त तथा चैतसिक-धर्म अरूप ( = नाम ) हैं । इस प्रकार नाम-रूप की व्यवस्था कर वह और क्लेश दूर