पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पंचम अध्याय इनके हेतु का पर्यषण करता है, वह अनित्यादि लक्षणों का विचार करता है, निमित्त का निर्वर्तन कर श्रार्य-मार्ग में प्रवेश करता है, और सकल धेश का ध्वंस कर अईत्कल में प्रतिष्ठित हो विवर्तना और परिशुद्धि की प्रत्यवेक्षा ज्ञान की कोटि को प्राप्त होता है। इस प्रत्यवेदा को पालि में 'परिपस्सना' कहा है। पानापान-मृति समाधि की प्रथम चार प्रकार की भावना का विवेचन सर्वरूप से किया जा चुका है। अब हम शेष बारह प्रकार की भावना का विचार करेंगे। यह बारह प्रकार भी तीन वर्गों में विभक्त किए जाते हैं । एक-एक वर्ग में चार प्रकार सम्मिलित हैं। इनमें से पहिला वर्ग वेदनानुपश्यना-वश चार प्रकार का है। ५. इस वर्ग के पहले प्रकार में योगी प्रीति का अनुभव करते हुए, श्वास का परित्याग और ग्रहण करना गीग्यता है। दो तरह से प्रीति का अनुभव किया जाता है-शमथ-मार्ग (= लौकिक-समाधि ) में अालवन-घश और विपश्यना-मागे में असंमोह-वश । प्रीति-सहगत प्रथम और द्वितीय-ध्यान सम्पादित कर ध्यान-नगण में योगी प्रीति का अनुभव करता है। प्रीति के श्राश्रयभूत बालंबन का संबंदन होने से प्रीति का अनुभव होता है । इसलिए यह संवेदन श्रालंबन-वश होता है। योगी प्रीति-सहगत प्रथम और द्वितीय ध्यानों को सम्पादित कर ध्यान से व्युत्थान करता है और ध्यान-संप्रयुक्त प्रीति के क्षय-कर्म का ग्रहण करता है । विपश्यना प्रज्ञा द्वारा प्रीति के विशेष और मामान्य लक्षणों के यथावत् ज्ञान से दर्शन-क्षण में प्रीति का अनुभव होता है । यह संवेदन असंमोह-वश होता है । 'पटिसमिदा' में कहा है-जब योगी दीर्घश्वास लेता है और स्मृति को ध्यान के संमुख उपस्थापित करता है तब इस स्मृति के कारण तथा इस ज्ञान के कारण कि चित्त एकाग्र है, योगी प्रीति का अनुभव करता है । इसी प्रकार जब योगी दीर्घश्वास छोड़ता है, हस्वश्वास लेता है, हरयास छोड़ता है, मसल शाम-काय सास प्रश्वास-काय के आदि, मध्य और अवसान राब भागों का अवोध कर तथा उन्हें विशद और विभूत कर श्वास छोड़ता और श्वास लेता है, काम-रकार (स्वास-प्रश्वास ) का शम करते हुए, सास छोड़ता है और श्वास लता है, तब उसका चिन एकाग्र होता है और इस ज्ञान द्वारा वह प्रीति का अनुभव करता है । यह प्रीति-संवेदन श्रालंबन यश होता है। जो ध्यान की ओर चित्त का प्रार्जन करता है, जो ध्यान-समापत्ति के क्षण में सालंबन को जानता है, जो ध्यान से उठकर ज्ञान-चतु से देखता है, जो ध्यान की प्रत्यवेदा करता है, जो यह विचार कर ध्यानचित्त का अवस्थान करता है कि 'मैं इतने का ता ध्यान-समर्जन रहूँगा' वह बालवन-श प्रीति का अनुभव करता है । जिन धी द्वारा शमय और विपश्यना की सिद्धि होती है, लनके द्वारा भी योगी प्रीति का अनुभव करता है । यह धर्म श्रद्धा आदि पांच इन्द्रिय हैं (श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रञ्चा । जैश के उपशम में इनका आधिपत्य होने से 'इन्द्रिय' संज्ञा पड़ी। ) जो शमथ और विपश्यना में हड श्रद्धा रखता है, जो कुशलो साह करता है, जो स्मृति उपस्थापित करता है, जो निल समाहित करता है और जो प्रज्ञा द्वारा यथाभूत दर्शन करता है, वह प्रीति का