पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१८०

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बौद्ध-मर्म-पर्शन अनुभव करता है । यह संवेदन श्रालंबन-वश और असंमोह-वश होता है । जिसने ६ अभिशा का अधिगम किया है, जिसने हेय दुःख को जान लिया है और जिसकी तद्विषयक जिज्ञासा निवृत्त हो गयी है, जिसने दुःख के कारण क्लेशों का परित्याग (हेय-हेतु या दुःख-समुदय) किया है, जिसके लिए और कुछ हेय नहीं है, जिसने मार्ग की भावना की है ( हानोपाय ) तथा जिसके लिए और कुछ कर्तव्य नहीं है तथा जिसने निरोध का साक्षात्कार किया है और जिसके लिए अब और कुछ प्राय नहीं है, उसको प्रीति का अनुभव होता है । यह प्रीति असंमोहवश होती है। ६. इस वर्ग के दूसरे प्रकार में योगी सुख का अनुभव करते हुए. श्वास छोड़ना और श्वास लेना सीखता है। सुख का अनुभव भी बालंबन-श और असंमोह-वश होता है । सुख- सहगत प्रथम तीन ध्यान सम्पादित कर ध्यान-क्षण में योगी सुख का अनुभव करता है, और ध्यान से व्युत्थान कर ध्यान-संयुक्त सुख के क्षयधर्म का ग्रहण करता है । विपश्यना द्वारा मुख के सामान्य और विशेष लक्षणों को यथावत् जानने से दर्शन-क्षण में असंमोह-श सुख का अनुभव होता है । विपश्यना-भूमि में योगी कायिक और चैतसिक दोनों प्रकार के सुख का अनुभव करता है। ७. इस वर्ग के तीसरे प्रकार में योगी चारों ध्यान द्वारा चित्त-संस्कार (= संज्ञायुक्त वेदना । संज्ञा और वेदना चैतसिक धर्म है। चित्त ही इनका समुत्थापक है । ) का अनुभव करते हुए श्वास छोड़ता और श्वास लेता है। ८. इस वर्ग के चौथे प्रकार में स्थूल चित-संस्कार का निरोध करते हुए श्वास छोड़ता और श्वास लेता है। इसका क्रम वही है जो काय-संस्कार के उपशम का है। दूसरा वर्ग चिचानुपश्यना-वश चार प्रकार का है। ६. पहले प्रकार में योगी चारों ध्यान द्वारा चिरा का अनुभव करते हुए. श्वास छोड़ना और लेना सीखता है। १०. दूसर प्रकार में योगी चिरा को प्रमुदित करते हुए श्वास छोड़ना या लेना साखता है । समाधि और विपश्यना द्वारा चित्र प्रमुदित होता है। योगी प्रीति-सहगत प्रथम और द्वितीय-च्यान को संपादित कर ध्यान-क्षण में संप्रयुक्त प्रीति से चित्त को प्रमुदित करता है। यह समाधि-वश चित्त-प्रमाद है। प्रथम और द्वितीय-ध्यान से उठकर योगी मान- सम्प्रयुक्त प्रीति के क्षय-धर्म का ग्रहण करता है। इस प्रकार योगी विपश्यना क्षण में ध्यान- सम्प्रयुक्त प्रांति को प्रालंबन बना, चित्त को प्रमुदित करता है । यह विपश्यना-यश चित्त-प्रमोद है। ११. तीसरे प्रकार में योगी प्रथम-ध्यानादि द्वारा चित्त को प्रालंबन में समरूप से अवस्थित करते हुए श्वास छोड़ना और श्वास लेना सीखता है। अर्पणा-क्षण में समाधि के चरम उत्कर्ष के कारण चित्त किचिन्मात्र भी लीन और उद्धत-भाव को नहीं प्राप्त होता तथा स्थिर और समाहित होता है। ध्यान से उठकर योगी ध्यान-सम्प्रयुक्त चित्त के क्षय-धर्म को देखता है और उसे विपश्यना-क्षण में चित्त के अनित्यता आदि लक्षणों का क्षण-क्षण