पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१८१

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पंचम अध्याय पर अवबोध होता है । इससे क्षणमात्र स्थायी समाधि उत्पन्न होती है। यह समाधि श्रालंबन में एकाकार से निरंतर प्रवृत्त होती मालूम पड़ती है और विच को निश्चल रखती है। १२. चौथे प्रकार में प्रथम-धान द्वारा विनों (नीवरण) से चित्त को मुक्त कर, द्वितीय द्वारा वितर्क-विचार से मुक्तकर, तृतीय द्वारा प्रीति से मुक्तकर चतुर्थ ध्यान द्वारा मुख-दुःख से चित्त को विमुक्तकर, योगी श्वाम छोड़ने और श्वास लेने का अभ्यास करता है अथवा ध्यान से व्युस्थानकर ध्यान-सम्प्रयुक्त चिर के क्षय-धर्म का ग्रहण करता है और विपश्यना-जण में अनित्य-भावदर्शी हो चित्र को नित्य-संज्ञा से विमुक्त करता है अर्थात् योगी अनित्यता की परमकोटि 'भंगा का दर्शन कर संस्कार की अनित्यता का साक्षात्कार करता है । इसलिए संस्कृत धर्मों के संबंध में उसकी जो मिथ्या-संज्ञा है, वह दूर हो जाती है। जिसका अनित्य-भाव है वह दुःख है, सुख कदापि नहीं है, जो दु.ख है, वह अनात्मा है, अान्मा कभी नहीं है । इस ज्ञान द्वारा वह चिरा को सुख-मंज्ञा और ग्राम-संज्ञा से विमुक्त करता है, वह देखता है कि बो अनित्य, दुःख और अनात्मा है उसमें अभिरति और रग न होना चाहिये । उसके प्रति योगी को निर्वेद और वैराग्य उत्पन होता है। वह निरा को प्रीति और राग से विमुक्त करता है। तम योगी का चित्त संस्कृत-धर्मों से विरक्त होता है, तब वह संस्कारों का निरोध करता है, उन्हें उत्पन्न होने नहीं देता। इस प्रकार निरोध-ज्ञान द्वारा यह चित्त को उत्पत्ति धर्म-समुदय से विमुक्त करता है । संस्कारों का निरोध कर वह नित्य आदि श्राकार से उनका ग्रहण नहीं करता, वह उनका परित्याग करता है, वह क्लेशों का परित्याध करता है और संस्कृत-धर्मो का दोष देखकर तद्विपरीत असंस्कृत-धर्म निर्वाण में चित्त का प्रवेश करता है । तीसरा वर्ग भी चार प्रकार का है। १३. पहले प्रकार में योगी अनित्य-ज्ञान के साथ श्वास छोड़ना और श्वास लेना सीखता है । पहले यह जानना चाहिये कि अनित्य क्या है ? अनित्यता क्या है ? अनित्य-दर्शन किसे कहते हैं ? और अनित्य-दशी कौन है ? पंचस्कंध अनित्य हैं, क्योंकि इनके-उत्पत्ति, विनाश, और अन्यथाभाव हैं। पंचकंधों का उत्पत्ति-विनाश ही अनित्यता है । यह उत्पन्न होकर श्रभाव को प्राप्त होते हैं । उस आकार में उनकी अवस्थिति नहीं होती। उनका क्षण-भंग होता है । रूप अादि को अनित्य देखना अनि-यानुपश्यना है ! इस शान से जो समन्वागत है, वह अनित्यदी है। १४. दूसरे प्रकार में योगी विराग-ज्ञान के साथ श्वास छोड़ना और श्वास लेना साखता है । विराग दो हैं--१. क्षय-विराग और २. अत्यन्त-विराग। संस्कारों का क्षण-भङ्ग दय-विराग है । यह क्षणिक निरोध है । अत्यन्त-विराग, निर्वाण के अधिगम से संस्कारों का अत्यन्त, न कि क्षणिक, निरोध होता है । क्षय-विराग के ज्ञान से विपश्यना और अत्यन्त-विराग के ज्ञान से मार्ग की प्रवृत्ति होती है। १५. तीसरे प्रकार में योगी निरोधानुपश्यना से समन्वागत हो श्वास छोड़ना और श्वास लेना सीखता है । निरोध भी दो प्रकार का है-१. क्षय-निरोध और २. अत्यन्त-निरोध ।