पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१८३

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पंचम अध्याय परित्याग, इसके लक्षण हैं। मैत्री भावना की सम्यक्-निष्पत्ति से द्वेष का उपशम होता है । राग इसका श्रासन शत्रु है । राग के उत्पन्न होने से इस भावना का नाश होता है । मैत्री की प्रवृत्ति जीवों के शील यादि गुगा-ग्रहण-यश होती है । राग मी गुण देखकर प्रलोभित होता है। इस प्रकार राग और मैत्री की समान-शीलता है। इसलिए कभी-कभी राग मैत्रीवत् प्रतीए- मान हो प्रवंचना करता है। स्मृति का किंचिन्मात्र भी लोप होने से राग मैत्री को अपनीत कर श्रालम्बन में प्रवेश करता है । इमलिए, यदि विवेक और सावधानी से भावना न की जाय तो चित्त के रागारूढ़ होने का भय रहता है। हमको सदा स्मरण रखना चाहिये कि मैत्री का सौहार्द तृष्णा-वश नहीं होता, किन्तु जीवों की हित-साधना के लिए होता है। राग, लोभ, और मोह के वश होता है किन्तु मैत्री का स्नेह मोह-वश नहीं होता किन्तु ज्ञानपूर्वक होता है । मैत्री का स्वभाव अद्वेष है और यह अलोभ-युक्त होता है । पराये दुःग्य को देखकर सत्पुरुषों के हृदय का जो कम्पन होता है इसे 'करणा' कहते हैं । करुणा की प्रवृत्ति जीवों के दुःन्त्र का अपनय करने के लिए होती है, दूसरों के दुग्त्र को देवकर साधु-पुरुष का हृदय करणा से द्रवित हो जाता है । वह दूसरों के दु.ख को सहन नहीं कर सकता, जा करणाशील पुरुष है वह दृमरों की विहिंसा नहीं करता । कम्प-भावना की सम्यक्-निष्पत्ति से विहिमा का उपशम होता है। शोक की उपनि से इस भावना का नाश होता है । शोक, दौर्मनस्य इस भावना का निकट शत्रु है । 'मुदिता' का लक्षण 'हां' है । जो मुदिता की भावना करता है वह दूसरों को सम्पन्न देवकार हर्ष करता है, उनसे या द्वेष नहीं करता। दूमरों की सम्पनि, पुण्य, और गुणो- का को देखकर उसको अग्या और अग्रीति नहीं उत्पन्न होती । मुदिता की भावना की निष्पति से अरति का उपशम होता है, पर यह प्रीति संसारी पुरुष की प्रीति नहीं है। पृथग्जनोचित प्रीति-श जो हर्ष का उदंग होता है उससे इस सपना का नाश होता है। मुदिता-भावना में हर्ष का जो उत्पाद होता है उमका शान्त प्रवाह होता है । वह उद्वेग और क्षोभ से रहित होता है। जीवों के प्रति उदासीन भाव 'उपेक्षा' है । 'उपेक्षा की भावना करने वाला योगी जीवों के प्रति सम-भाव रखता है, वह प्रिय-अप्रिय में कोई भेद नहीं करता। सबके प्रति उसकी उदासीन- वृत्ति होती है । वह प्रतिकूल और अप्रतिकूल इन दोनों प्राकारों का ग्रहण नहीं करता, इसी- लिए. उपेक्षा-भावना की निष्पत्ति होने से विहिंसा और अनुनय दोनों का उपशम होता है । उपेक्षा-भावना द्वारा इस ज्ञान का उदय होता है कि "मनुष्य कर्म के अधीन है, कर्मानुसार ही सुख से सम्पन्न होता है या दुःख से मुक्त होता है या प्राप्त-सम्पत्ति से च्युत नहीं होता। यही शान इस भावना का श्रासन्न कारण है। मैत्री श्रादि प्रथम तीन भावनाओं द्वारा जो विविध प्रवृत्ति होती थी उसका ज्ञान द्वारा प्रतिषेध होता है। पृथक्-जनोचित अज्ञान-वश उपेक्षा की उत्पत्ति से इस भावना का नाश होता है। यह चारों मझ-विहार समान रूप से शान और सुगति को देने वाले है।