पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बौद-धर्म दर्शन 1 के पूर्व ही उस कसिण की मर्यादा अनन्त की जानी चाहिये। कसिण प्रथम छोटे श्राकार का होता है, जिसे अनुक्रम से बढ़ाकर समस्त विश्वाकार किया जाता है, उस विश्याकार-श्राकृति पर चतुर्थ-ध्यान साध्य करने के पश्चात् योगी अपने ध्यान-बलसे उम प्राकृति को दूर करके 'विश्व में केवल एक श्राकाश ही भरा हुआ है। ऐसा देवता है। चतुर्य-ध्यान तक रूपात्मक बालम्बन था; अब अरूपात्मक पालम्बन है। इसलिए 'श्राकाश अनन्त है। ऐसी संशा होने से इसे श्राकाशानन्त्यायतन कहा है। विज्ञानानन्यायसन-इस ध्यान में योगी अाकाश-संज्ञा का समतिक्रम करता है। श्राकाश की अनन्त मर्यार ही विज्ञान की मर्यादा है। ऐसी संज्ञा उत्पन्न करने पर वह विज्ञान का श्रानन्त्य जिसका पालम्भन है, ऐसे ध्यान को प्राप्त करता है । भाकिनन्यायतन-इस ध्यान में योगी विज्ञान में भी दोष देखता है और उसका समतिकम करने के लिए विज्ञान के प्रभाव की संज्ञा प्राप्त करता "अमात्र भी अनन्त है; कुछ भी नहीं है, कुछ भी नहीं हैं, सब कुछ शान्त है। इस प्रकार की भावना करने पर योगी इस तृतीय श्ररूप-ध्यान को प्राप्त होता है। नवसंज्ञानासंज्ञायतन-प्रभाव की संज्ञा भी बड़ी स्थूल है । अभाव की संज्ञा का भी श्रभात्र जिममें है, ऐमा अति शान्त, सूक्ष्म यह चौथा आयतन है । इम ध्यान में संज्ञा अति 'सूक्ष्म-रूप में रहती है, इसलिए उसे असंज्ञा नहीं कह सकते, और स्थूल-रूप में न होने के कारण उसे संज्ञा भी नहीं कहते हैं। पालि में एक उपमा देकर इसे समझाया है। गुरु और शि-य प्रवाप में थे। रास्ते में थोड़ा पानी था। शिष्य ने कहा श्राचार्य ! मार्ग में पानी है, इसलिा. जूना निकाल लीजिये। गुरु ने कहा-'अच्छा तो स्नान कर लूँ, लोटा दो । शिन्य ने कहा- "गुरु जी ! ग्नान करने योग्य पानी नहीं है ।" जिस प्रकार उपानह भिंगाने के लिए पर्याप्त पानी है किन्तु स्नान के लिए पर्याप्त नहीं, इसी प्रकार इस अायतन में संज्ञा का अतिमूक्ष्म अंश विद्यमान है किन्तु संज्ञा का कार्य हो, इतना स्थूल भी वह नहीं है, इसीलिए इस अायतन को नैवमंज्ञानासंज्ञायतन कहा है । इस अायतन को प्राप्त करने पर ही योगी निरोध-समापत्ति को प्राप्त कर सकता है, जिसमें अमुक काल ( = सातदिन) तक योगी की मनोवृत्तियों का आत्यंतिक निरोध होता है । इन चार अरूप-ध्यानों में केवन दो ही ध्यानाङ्ग रहते हैं-- उपेक्षा और चिच. काग्रता । ये चार ध्यान अनुक्रम से शान्ततर, प्रणीततर, और सूक्ष्मतर होते हैं । आहार में प्रतिकूल-संक्षा श्रालय के अनन्तर श्राहार में प्रतिकुल-संज्ञा नामक कर्मशान निर्दिष्ट है । अाहरण करने के कारण 'याहार' कहते हैं । यह चतुर्विध है-कालीकार (= खाद्य पदार्थ ), स्पर्शाहार, मनोसचेतनाहार और विज्ञानाहार । इनमें से काजीकार श्राहार प्रोजयुक्त-रूप का बाहरण करता है; स्पशोहार सुन्न, दुःख, उपेक्षा, इन तीन वेदनाओं का बाहरण करता है, मनोसञ्जे- तनाहार काम, रूप, अरूप भवों में प्रतिसन्धि का बाहरण करता है, विज्ञानाहार प्रतिसन्धि के क्षण