पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१८७

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पंचम अध्याय में नाम-रूप का श्राहरण करता है । ये चारों आहार भयस्थान है, किन्तु यहाँ केवल कवलीकार आहार ही अभिप्रेत है । उस आहार में जो प्रतिकूल-संशा उत्पन्न होती है, वही यह कर्मस्थान है। इस कर्मस्थान की भावना करने का इच्छुक योगी असित, पीत, स्वाचित, साथित प्रभेद का जो कवलीकार अाहार है, उसके गमन, पर्ये पण परिभोग, आशय, निधान, अपरिपक्वता, परिपक्वता, फल, निष्यन्द और समक्षण रूप से जो अशुत्रिभाव का विचार करता है, उस विचार से उसे श्राहार में प्रतिकुल-संज्ञा उत्पन्न होती है, और कवलीकार-बाहार नमी प्रकार प्रकट होता है । वह उस प्रतिकूल भावना को बढ़ाता है । उसके नीवरणों का विष्कम्भन होता है और चित्त उपचार-समाधि को प्रात होता है; अर्पणा नहीं होती है । इस संज्ञा से योगी की रस-तृष्णा नष्ट होती है । वह केवल दुख-निस्सरण के लिए ही आहार का सेवन करता है; पञ्च काम-गुण में राग उत्पन्न नहीं होता और कायगता-स्मृति उत्पन्न होती है। चतुर्यात व्यवस्थान चालीस कर्मस्थानों में यह अन्तिम-कर्मस्थान है । स्वभाव निरूपण द्वारा विनिश्चय को 'व्याया' कहते हैं । महासतिबठान, माथिपादोरम, राहुलोबाद श्रादि सूत्रों में इसका विशेष-वर्णन अाता है। महासातपट्ठान-सुत्त में कहा है--भिन्तुनो ! जिस प्रकार कोई दक्ष गोधातक बैल को मार कर चौराहे पर खण्ड-खण्ड कर रख दे और उसे उन खण्डों को देखकर 'यह बैल है। ऐसा संज्ञा नहीं उत्पन्न होती, उसी प्रकार भिन्तु इसी काय को धातु द्वारा व्यवस्थित करता है कि इस काय में पृथिवा-धातु है, श्रापो-धातु है तेजो-धातु है, वायु-धातु है । इस प्रकार के व्यवस्थान से कार में "यह सत्त्व है, यह पुद्गल है, यह अात्मा है। ऐसी संज्ञा नष्ट होकर धातु-सजा ही उत्पन्न होता है। भिक्षु इस संज्ञा को उत्पन्न कर अपने अाध्यात्मिक और बाह्य-रूप का चिन्तन करता है । वह प्राचार्य के पास ही केशा-लोमा-नरवा-दन्ता अादि कर्मस्थान को ग्रहण कर उनमें भी चतुर्धातु का व्यवस्थान करता है; फिर पृथिवी-प्रादि महाभूतो के लक्षण, समुत्थान, नानात्व, एकत्व, प्रादुर्भाव, संज्ञा, परिहार और विकार का चिन्तन करता है । उनम अनात्म-संज्ञा, दुःख- संज्ञा, और अनित्य-संज्ञा को उत्पन्न करता है. और उपचार-समाधि को प्राप्त करता है । अर्पणा प्राप्त नहीं होती। चतुर्धातु-व्यवस्थान में अनुयुक्त योगा शून्यता में अवगाह करता है, सत्वसंज्ञा का समुद्- धात करता है और महाप्रज्ञा को प्राप्त करता है। विपश्यना समाधि-मार्ग का विस्तृत-वर्णन हमने ऊपर दिया है। किन्तु निर्वास के प्रार्थी को शमय की भावना के पश्चात् विपश्यना की वृद्धि करना आवश्यक है। इसके बिना अहत्पद में प्रतिष्ठा नहीं होती।