पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१८८

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गोड-धर्म-दर्शन विपश्यना एक प्रकार का विशेष दर्शन है। जिस समय इस शान का उदय होता है कि-सब धर्म अनित्य है, दुःखमय है तथा अनाम है-उस समय विपश्यना का प्रादुर्भाव होता है। बौद्धागम में पुद्गल ( जीव ) संस्कार-समूह है। यह एक सन्तान है । अामा नाम का नित्य, ध्रुव और स्वरूप से अविपरिणाम-धर्म वाला कोई पदार्थ नहीं है, पञ्च-स्कन्ध-मात्र है रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, और विज्ञान यह स्कन्ध-पञ्चक क्षण-क्षण में उत्पद्यमान और विनश्य- मान हैं । यह साश्रव धर्म 'दुःख' है, क्योंकि क्लेश-हेतु-वश इनकी उत्पत्ति होती है। क्लेश सन्तान को दूपित करते हैं । दुःख का अन्त करने में प्रज्ञा की प्रधानता है। पहले इसका ज्ञान होना चाहिये कि न श्रात्मा है, न अात्मीय, सब संस्कृत-धर्म अनित्य है। जो सब धर्मों को अनित्यता, दुःखता और अनात्मता के रूप में देखता है वह यथाभूतदर्शी है । उसको विपश्यना- शान प्राप्त है। इसीलिए धर्मपद की अर्थकथा' में श्रात्मभाव के क्षय-व्यय की प्रतिष्ठा कर सतत अभ्यास से अर्हत्पद के ग्रहण को विपश्यना कहा है। विपश्यना प्रज्ञा का मार्ग है । इसे लोकोत्तर-समाधि भी कहते हैं। इस मार्ग का अनु- गामी 'विपश्यनायानिक' कहलाता है। सप्त-विशुद्धियों द्वारा विपश्यना-मार्ग के फल की प्राप्ति होती है । यह सात विशुद्धियाँ इस प्रकार है-- १. शील-विशुद्धि, २. चित्त-विशुद्धि; ३, दृष्टि-विशुद्धि ( = नामरूप का यथावदर्शन); ४. कांदा-वितरण-विशुद्धि (संशयों को उत्तीर्ण कर नाम-रूप के हेतु का परिग्रह), ५. मार्गा- मार्ग-ज्ञानदर्शन-विशुद्धि (-मार्ग और अमार्ग का शान और दर्शन), ६. प्रतिपत्तिज्ञानदर्शन- विशुद्धि (= अष्टांगिक मार्ग का ज्ञान तथा प्रत्यक्ष साक्षात्कार);७. ज्ञानदर्शन-विशुद्धि (सोता- पत्ति-मार्ग, सकृदागामि मार्ग, अनागामि-मार्ग, अह-मार्ग, इन चार मार्गो का शान और प्रत्यक्ष दर्शन)। 1. हमस्मि सासने कति धुरानीति ? गन्थधुरं विपस्सनापुरन्ति हे पेव धुरानि मिासूति । कतम विपस्सना पुरन्ति ? सबहुक बुतिनो पन पन्ध सेनासनाभिरतस्स भत्तभावे समक्यं पहपेया सावधकिरियवसेन विपस्सनं वदेत्या महत्तगहन्ति इवं विपस्सनावर मामाति ।[धम्मपदलुक्या11]