पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१९१

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1 षष्ठ अध्याय महायान-धर्म की उत्पत्ति बब महाराज अशोक बौद्ध हो गये, तब उनका प्रश्रय पाकर बौद्ध-धर्म बहुत उनका विस्तृत साम्राज्य था। उन्होंने धर्म का प्रचार करने के लिए दूर-दूर उपदेशक भेजे । भारत के बाहर भी उनके मंजे उपदेशक गये थे। उन्होंने अनेक स्तूप और बिहार बनवाये। अशोक के कौशाम्धी के लेख से मालूम होता है कि यहाँ एक भिन्नु-संघ था। एक संघ का पता सारनाथ के लेख से चलता है । भानू लेव में अशोक कहते हैं कि सब बुद्ध-वचन सुभाषित । किन्तु मैं कुछ बचनों की विशेष रूप से सिफारिश करता हूँ। उन्हीं के समय में 'खुतना में भारतीयों का उपनिवेश हुआ। वहाँ से ही पहले पहल बौद्ध-धर्म चीन गया । अशोक के समय में बौद्धों में मूर्तिपूजा न थी। बुद्ध का प्रतीक रिक्त-श्रासन, चक्र, कमल-पुष्प, , या चरणपादुका था। स्तूप में बुद्ध का धातु-गर्भ रखकर पूजा करते थे । कथा है कि अशोक ने बुद्ध की अस्थियों को प्राचीन स्तूपों से निकाल कर ८४००० स्तूपों में बाँट दिया । चैत्य की पूजा भी प्राचीन थी। श्रारंभ में बुद्ध यद्यपि अन्य अर्हतों की अपेक्षा श्रेष्ठ समझे बाते थे; यद्यप उनका जन्म, उनके लक्षण, मार-धर्पण, जन्म के पूर्व तुक्तिलोक में निवास, उनकी मृत्यु, सभी अद्भुत थे; तथापि प्राचीन निकायों के अनुसार बुद्ध का निर्वाण अन्य अर्हतों के निर्वाण से भिन्न न था। उनका यह विश्वास न था कि परिनिवृत बुद्ध इस लोक में हस्तक्षेप कर सकते हैं । यद्यपि ये बुद्ध के निर्वाण को महाशून्य मानते थे तथापि उनके लिए बुद्ध त्राता नहीं थे जैसे ईसाईयों के लिए ईसामसीह आता है। शास्ता ने कहा है कि तुम्ही अपने लिए दीपक हो, दूसरे का आश्रय मत लो, धर्म ही एकमात्र तुम्हारा दीप, शरण, सहाय, हो । बुद्ध का कहना था कि निर्वाण का साक्षात्कार प्रत्येक को स्वयं करना होता है । उनके लिए वे संघ के गणाचार्य थे, शास्ता थे। वे उनके लिए मैत्री और ज्ञान की मूर्ति थे | उनको बुद्ध की शरण में जाना पड़ता था। बुद्ध की अनुस्मृति एक कर्मस्थान था, किन्तु जब शास्ता का परिनिर्वाण हो गया तब पूजा का विषय अतीन्द्रिय हो गया । अब प्रश्न यह हुआ कि पूजा से क्या फल होगा। कर्मवाद के अनुसार बौद्ध यह नहीं मानते थे कि पूजा करने से बुद्ध वरदान देंगे । किन्तु वे यह मानते थे कि बुद्ध का ध्यान करने से चित्त समाहित और विशुद्ध होगा, और पूजक अपने को निर्माण के लिए तैयार करेगा । सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक अपने किए हुए कर्मों का फल भोगता है। बुद्ध की शिक्षा में प्रसाद (प्रेस) और प्रार्थना को स्थान नहीं दिया गया है। इसके लिए कोई उचित शरद भी नहीं है। मिलता-जुलता एक शन्द परिणधि, प्रणिधान है,