पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१९६

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बौद्ध-धर्म-पर्शन मय काय के १० प्रकार हैं। कुछ के अनुसार यह काय मनःस्वभाव है, दूसरों के अनुसार इस काय की उत्पत्ति इच्छानुसार होती है, पूर्वकाय का परिणाम मात्र होता है । अभिनव काय की उत्पत्ति नहीं होती। बुद्ध का यथार्थ काय रूप-काय नहीं है, जिसके धातु-गर्भ की पूजा उपासना करते हैं, किन्तु धर्म (= धर्म-विनय ) यथार्थ-काय है । धर्म-काय प्रवचन-काय है । शाक्य-पुत्रीय-भिन्तु इसी धर्म-काय से उत्पन्न हुए हैं । “मैं भगय का औरस पुत्र, धर्म से उत्पन्न हूँ, धर्म का दायाद हूँ" ( दीघ ३, पृ० ८४; इतिवृत्तक पृ० १०१)। दूसरा कारण यह है कि भगवान् धर्म- भूत हैं, ब्रह्म-भूत हैं, धर्म-काय भी हैं ( दीघ ३, २४; मज्झिम, ३, पृ. १६५) । इसी प्रकार कहते हैं. प्रज्ञा-पारमिता धर्म-काय है, तथागत-काय है। जो प्रतीत्यसमुत्पाद का दर्शन करता है वह धर्म-काय का दर्शन करता है । प्रज्ञापारमितास्तोत्र में नागार्जुन कहते हैं-जो तुझे भाव से देखता है, वह तथागत को देखता है । शान्तिदेव बोधिचर्यावतार के श्रारंभ में सुगतात्मज और धर्म-काय की भी वन्दना करते हैं (पृ. ३)। स्थविर-बाद से महा-यान में आते-जाते बुद्ध में पूर्ण अलौकिक-गुण श्रा जाते हैं । अब बुद्ध को केवल अलौकिक-गुण-यूह-सम्पत्ति से समन्वागत ही नहीं किया गया, पर उनका व्यक्तित्व ही नष्ट कर दिया गया । बुद्ध अजन्मा, प्रपञ्च-विमुक्त, अव्यय और आकाश प्रतिसम हो गये। स्थविर-वादियों के अनुसार भगवान् बुद्ध लोकोत्तर थे। बुद्ध ने स्वयं कहा था कि मैं लोक में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हूँ और सब सत्वों में अनुत्तर हूँ। एक बार द्रोण ब्राह्मण बुद्ध के पादों में साकार परिपूर्ण-चक्रों को देखकर चकित हुआ। उसने बुद्ध से पूछा कि श्राप देव है, यह हैं, गन्धर्व है, क्या है ? भगवान् ने कहा--मैं इनमें से कोई नहीं हूँ। द्रोण बोला-फिर क्या श्राप मनुष्य हैं ? बुद्ध ने उत्तर दिया-~-मैं मनुष्य भी नहीं हूँ, मैं बुद्ध हूँ-जिमसे देवोत्पत्ति होती है, जिससे यहत्व या गन्धर्वत्व की प्राप्ति होती है । सब प्रासयों का मैने नारा किया है । हे ब्राह्मण ! जिस प्रकार पुण्डरीक जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार मैं लोय से उपलिप्त नहीं होता' | दोघ निकाय के अनुमार बोधिसत्व की यह धर्मता है कि जत्र तुषितकाय से च्युत हो माता की कुक्षि म अवक्रान्त होते हैं, तब सब लोकों में अप्रमाण अवभास का प्रादुर्भाव होता है । यह अवभास देवताओं के तेज को भी अभिभूत कर देता है। लोकों के बीच जहाँ अन्धकार ही अन्धकार है, जहाँ चन्द्रमा और सूर्य ऐसे महानुभावों की भी श्राभा नहीं पहुँचती, वहाँ भी अप्रमाण-अवमास का प्रादुर्भाव होता है । बोधिसत्व महापुरुषों के बत्तोस लक्षणों से और अस्सी अनुव्यंजनों से समन्यागत होते हैं। एक स्थल पर भगवान् श्रानन्द से कहते है कि दो काल में तथागत का छवि-वर्ण परिशुद्ध होता है .. अनुसरनिकाय भाग २, चतुरुनिपात, चावग, पृ०३८ । २. भाग २, पृष्ठ १२, महापदान सुत्तन्त | 1. बोधनिकाय, भाग १, पृष्ठ । ५. दीघनिकाय, भाग ३. पृष्ठ १५५ ।