पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१९७

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बध्याय १. जिस रात्रि को भगान् गम्यक-मम्बोधि प्राम करते हैं। २. जिस रात्रि को भगवान अनुपधि-शे-निर्वाण में प्रवेश करते हैं । पालि-निकाय के अनुसार अब बोधिसत्व ने गर्भावक्रान्ति की, तब मानुर और अमानुष परस्पर हिसा का भाव नहीं रखते थे और सब सच हृष्ट और तुए । भगवान् के यह सत्र अद्भुत धर्म त्रिपिटक में वर्णित हैं। इन सब अद्भुत-धर्मों ने गमागत होते हुए भी स्थविरवादी बुद्ध को इसी अर्थ में लोकोत्तर मानते थे कि वह लोक को अभिभूत कर स्थित है, अर्थात् लोक से अनुपलिप्त होकर विहार करते हैं। जहाँ दूसरे युद्ध के बताए हुए मार्ग का अनुसरण कर अर्हत् अवस्था को प्राप्त करते हैं और उनको मार्ग का अन्वे रण नहीं करना पड़ता बड़ा बुद्ध स्वयं अपने उद्योग से निर्वाण-मार्ग का उद्घाटन करते हैं । यही उनकी विशेषता है । पर स्थविरवादी मनुष्ण-जोक में बुद्ध की स्थिति को स्वीकार करते थे। वे उनके जीवन की घटनायों को सत्य मानते थे। इस पर उनका पूरा विश्वास था कि बुद्ध लोक में उत्पन्न हुए, लोक में ही उन्होंने सम्यक्-ज्ञान की प्राप्ति की और लोक में ही उन्होंने धर्म का उपदेश किया । स्थविर-वादी बुद्ध के व्यक्तित्व को स्वीकार करते हुए. उनकी शिक्षा पर अधिक जोर देते थे। परिनिर्वाण के पूर्व स्वय बुद्ध ने अपने शिष्य अानन्द से कहा था' हे अानन्द 1 तुममें से किसी का विचार यह हो सकता है कि शाम्ता का प्रवचन अतीत हो गया, अब हमारा कोई शास्ता नहीं है । पर ऐसा विचार उचित नहीं है । जिस धर्म और विनय का मैंने तुमको उपदेश किया है मेरे पीछे वह तुम्हारा शास्ता हो । बुद्ध ने यह भी कहा है कि जो धर्म को देखता है वह मुझको देखता है और जो मुझको देखता है वह धर्म को देखता है। इसका यही अर्थ है कि जिसने धर्म का तत्व समझ लिया है, उसी ने वास्तव में बुद्ध का दर्शन किया है। बुद्ध के निर्माण के पश्चात् यही धर्म शास्ता का कार्य करता है। बुद्ध का बुद्धत्व इसी में है कि, उन्होंने दुःख की अत्यन्त-निवृत्ति के लिए धर्म का उपदेश किया । बुद्ध केवल पथ-प्रदर्शक हैं, उनके बताये हुए धर्म की शरण में जाने से । निर्वाण का अधिगम होता है । बुद्ध कहते हैं- "हे अानन्द ! तुम अपने लिये स्वयं दीपक हो; धर्म की शरण में जाश्रो; किसी दूसर का श्राश्रय न खोजो।” धर्म की प्रधानता को मानते हुए भी स्थविरवादी बुद्ध के व्यक्तित्व को स्वीकार करते थे, पर बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् श्रद्धालु-श्रावक बुद्ध को देवातिदेव मानने लगे और यह मानने लगे कि बुद्ध सहस-कोटिन्कल्प से हैं और उनका श्रायु प्रमाण अनन्त-कल्प का है। बुद्ध लोक के पिता और स्वयंभू हो गये, जो सदा गृध्रकूट पर्वत पर निवास १. दीघनिकाय, भाग २, पृष्ठ १५५ महापरिनिब्यान-सुत्त । २. धम्मं हि सो भिक्सवे भिक्खु प.सति, धम्म परसन्तो में परसति 'ति-इतिवृत्तक, वग ५, सुच, पृष्ठ ।। यो रखो पाक्षि धम्म पस्सति सो मं परसति । यो मं पस्सति सो भर्म एस्सति-संयुस-निकाय, भाग ३, पृछ ।२०।