पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१९८

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110 बौद्ध-धर्म-दर्शन करते हैं, और जब धर्म का उपदेश करना चाहते हैं, तब भूमध्य के ऊर्णाकोश से एक रश्मि प्रसृत करते है, जिससे अट्ठारह-सहस-बुद्धक्षेत्र प्रवभासित होते हैं। बुद्धों की संख्या भी अनन्त हो गयी। महायान सूत्रों में इस प्रकार के विचार प्रायः पाये जाते हैं । सद्धर्म-पुण्डरीक वैपुल्य-सूत्रों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इसमें तथागतायुष्प्रमाण पर एक अध्याय है। इस अध्याय में भगवान्-बुद्ध कहते हैं कि सहस्र-कोटि-कल्प व्यतीत हुए, जिसका कि प्रमाण नहीं है, बब मैंने सम्यक्-शान प्राप्त किया, और मैं नित्य-धर्म का उपदेश करता हूँ । भगवान् कहते हैं कि "मैं सत्वों की शिक्षा के लिए उपाय का निदर्शन करता हूँ और उनको निर्वाण भूमि का दर्शन कराता हूँ। मैं स्वयं निर्वाण में प्रवेश नहीं करता और निरन्तर धर्म का प्रकाश करता रहता हूँ । पर विम-चित्त-पुरुष मुझको नहीं देखते । यह समझ कर कि मेरा परिनिर्वाण हो गया है, वह मेरे धातु की विविध प्रकार से पूजा करते हैं, पर मुझको नहीं देखते। उनमें एक प्रकार की स्पृहा उत्पन्न होती है, जिससे उनका चित्त सरल हो जाता है । जब ऐसे सरल और मृदु सत्त्व शरीर का उत्सर्ग करते हैं, तब मैं श्रावक-संघ को एकत्र कर गृध्रकूट-पर्वत पर उनको अपना दर्शन कराता हूँ; और उनसे कहता हूँ, कि मेरा उस समय निर्वाण नहीं हुआ था; यह मेरा केवल उपाय-कौशल था; मैं जीवलोक में बार-बार आता हूँ" | 1. एवेम है लोकपिता स्वयंभूः चिकित्सक सर्व-प्रजान-नाथः । विपरीत मूढांश्च विदिस्व बालान् अनिवृतो निवृत दर्शयामि ॥२|| [सबर्मपुण्डरीक, पृ. ३२६] २. अचिम्तिया कल्पसहस्त्रकोव्यो यास प्रमाणं न कदाधि विद्यते । प्राता मया एष तदासबोधिधर्म च देशेम्यहु नित्यकालम् ।।३।। [ सद्धर्मपुरधरीक, पृ. ३२३] भूमि चुपदर्शयामि विनपार्थसत्त्वान वदाम्युपायम् । न चापि निर्वाम्यहु तस्मि काले इहैव चो धर्म प्रकाशयामि ॥ ॥ सत्रापि चारमानमधिहामि सर्वांत्र संस्थान तथैव चाहम् । विपरीतबुद्धी च नरा विमूढाः तत्रव तिष्ठन्तु न परियषु माम् ॥४॥ परिनिवृतं दृष्ट्र ममात्मभावं धातूपु पूजां विविधा करोन्ति । मांच अपश्यन्ति जनेन्ति सृष्यां सतोजुक चिस प्रभोति तेषाम् ॥५॥ का यदा ते मृदुमार्दवाच उत्सएकामाश्च भवन्ति सत्याः । सतो अहं श्रावकसंघ कृखा पास्मान दशेम्यहु गृध्रकूटे ॥६॥ एवं सहतेष वदामि पश्चात् इहैवनाई सद पासि निर्वृतः । उपायकौशल्य ममेति मिक्षयः पुनः पुनो भोम्यहु जीवलोके ॥७॥ [सबर्मपुरारीक, पृ० १९४-110] ३.