पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१९९

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पहअध्याय प्रज्ञापारमिता-सूत्र के भाष्य में नागार्जुन कहते है कि तथागत सदा धर्म का उपदेश करते रहते है, पर सत्व अपने पाप-कर्म के कारण उनके उपदेश को नहीं सुनते और न उनकी आमा को देखते हैं, जैसे बहरे बन के निनाद को नहीं सुनते और अन्धे सूर्य की ज्योति को नहीं देखते । ललित-विस्तर में एक स्थल पर श्रानन्द और बुद्ध का संवाद है । भगवान् श्रानन्द से कहते हैं कि भविष्य-काल में कुछ भिनु अभिमानी और उद्धत होंगे। वे बोधिसत्त्व की गर्भावक्रान्ति-परिशुद्धि में विश्वास न करेंगे। वे कहेंगे कि यह किस प्रकार संभव है कि बोधि- सत्व माता की कुक्षि से बाहर आते हुए गर्भमल उपलिप्त नहीं हुए। वे नहीं जानते कि तथागत देवतुल्य हैं और हम मनुष्य-मात्र हैं, और उनके स्थान की पूर्ति करने में समर्थ नहीं हैं। उनको समझना चाहिये कि हमलोग भगवान् की इयत्ता या प्रमाण को नहीं जान सकते; वह अचिन्त्य है।" करण्डक-व्यूह मे अवलोकितेश्वर के गुणों का वर्णन है । इस ग्रन्थ में लिखा है कि प्रारम्भ में श्रादि-बुद्ध का उदय हुआ। इनको स्वयंभू और श्रादिनाथ भी कहा है । इन्होंने ध्यान द्वारा संसार की सृष्टि की। अवलोकितेश्वर की उत्पत्ति श्रादि-बुद्ध से हुई और उन्होंने सृष्टि की रचना में श्रादि-बुद्ध की सहायता की । अवलोकितेश्वर की आँखों से सूर्य और चन्द्रमा की सृष्टि हुई, मस्तक से महेश्वर, स्कन्ध से ब्रह्मा, और हृदय से नारायण उत्पन्न हुए। सुखावती-व्यूह में लिखा है कि यदि तथागत चाहें तो एक पिण्ड-पात कर कल्पशत- सहस तक और इससे भी अधिक काल तक रह सकते हैं, और तिस पर भी उनकी इन्द्रियां नष्ट न होंगी, उनका मुग्व विवर्ण न होगा; और उनके छविवर्ण में परिवर्तन न होगा। यह बुद्ध का लोकोत्तर भाव है' । मुखारती लोक में अमिताभ तथागत निवास करते हैं, अमिताभ की प्रतिभा अनुपम है, उसका प्रमाण नहीं है। इसी कारण उनको 'अमितामा 'अमितप्रभा आदि नाम से मंकीर्तित करते हैं । यदि तथागत कल भर अमिताभ के कर्म का प्रभा से प्रारंभ कर वर्णन करें तो उनकी प्रभा का गुण-पर्यन्त अधिगत न कर सकें, क्योंकि अमिताभ की प्रभा- गुण-विभूति अप्रमेय, असंख्येय, अचिन्त्य, और अपर्यन्त है : अमिताभ का श्रावकसंघ भी अनन्त और अपर्यन्त है । अमिताभ की श्रायु अपरिमित है। इसीलिए, इन्हें 'अमितायु' भी कहते हैं । साम्प्रत कल्पगणना के अनुसार इस लोक-धातु में अमितायु को सम्बोधि प्राप्त किए दश-कल्प व्यतीत हो चुके हैं | समाधिराज में लिखा है कि बुद्ध का ध्यान करते हुए भावक को किसी रूपकाय का ध्यान न करना चाहिये। क्योंकि बुद्ध का धर्म-शरीर है, बुद्ध की उत्पत्ति नहीं होती, वह बिना कारण के ही कार्य है, वह सबके आदिकारण है, उनका श्रारंभ नहीं है। सुवर्णप्रभाससूत्र में भी बतलाया है कि बुद्ध का जन्म नहीं होता । उनका सच्चा शरीर 'धर्म-काय' या धर्म-धातु है। इसीलिए सुखावतीव्यूह में युद्ध को 'धर्म-स्वामी और बुद्धचरित में 1. भाकक्षन्नानन्द तथागत एकपिण्डपातेन न्यं वा तिष्ठेत् कल्पशतं वा कल्पसहसं पाप- शतसावं वा यावत् कल्पकोटोन्यियुतशतसहस्र वा ततो वोत्तरि तिष्ठेत् नच तथागतस्पेन्दिया- सुपनरयेयु ममुखवर्णस्पान्यथात्वं भवेत्रापि च्छषिवर्ण उपहन्येत । [सुखावतीप्यूर, पृष्ठ.]