पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२००

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बौद-धर्म-दर्शन 'धर्म-राज' कहा है। महायानयोत्पाद-शास्त्र का कहना है कि बुद्ध ने निर्वाण में प्रवेश नहीं किया; उनका काय शाश्वत है। स्थविरवादियों ने महायानियों के लोकोचरवाद का विरोध किया, जैसा कथावत्थु से स्पष्ट है । कथावत्थु के अठारहवें वर्ग में इसकी स्थापना की गयी है कि बुद्ध मनुष्य-लोक में थे और इस पूर्व-पन का खण्डन किया गया है कि उनकी स्थिति मनुष्य-लोक में न थी । पूर्व-पन का खण्डन करते हुए पिटक ग्रन्थों से बुद्ध-वचन उधृत कर यह दिखाया गया है कि बुद्ध के संवादों से ही यह सिद्ध है कि बुद्ध की स्थिति मनु यलोक में थी। बुद्ध लोक में उत्पन्न हुए थे, सम्यक्-सम्बोधि प्राप्त कर उन्होंने धर्म चक्र का प्रवर्तन किया था और उनका परि-निर्माण हुअा था ! इसी वर्ग में इस पूर्व-पद का भी खण्डन किया गया है कि बुद्ध ने धर्म का उपदेश नहीं किया । स्थविर-वादी पूछता है कि, यदि बुद्ध ने धर्म का उपदेश नहीं किया तो फिर किसने किया । पूर्व-पक्ष इसका उत्तर देता है कि 'अभिनिर्मित' ने धर्म-देशना की,और यह अभिनिर्मित 'अानन्द' था । सिद्धान्त बताते हुए. सूत्रों से उद्धरण दिये गये हैं, जिनसे मालूम होता है कि बुद्ध ने स्वयं शारिपुत्र से कहा था कि मैं संक्षेप में भी और विस्तार से भी धर्म का उपदेश करता है, इसलिए. यह स्वीकार करना पड़ता है कि भगवान् बुद्ध ने संयं धर्म-देशना की थी। यह हम ऊपर कह चुके हैं कि त्रिपिटक में ही बुद्ध के धर्म-काय की सूचना मिलती है । बुद्ध ने स्वयं कहा है कि जो धर्म को देखता है या नुमको देखता है और जो मुझको देखता है, वह धर्म को देखता है । धर्म-काय-यह उन धमों का समुदाय है जिनके प्रतिलाम से । क श्राश्रय विशेष सर्व- धर्म का ज्ञान प्राप्त कर बुद्ध कहलाता है । बुद्ध-कारकधर्म -दयज्ञान, अनुत्पादज्ञान,मम्बक-दृष्टि हैं। इन शानों के परिवार अनासक पंच स्कंध हैं। धर्म-काय अनासब धमा' की सन्तान है या पाश्रय- परिनिर्वृति है। यह पञ्चभाग या पञ्चाङ्ग धर्म-काय कहला है। धर्म-संग्रह ( पृ० २३ ) में इन्हें लोकोत्तर स्कन्ध कहा है; महाव्युत्पत्ति में अममममस्कंध है; इन्हें जिन-स्कन्ध भी कहते है। यह दीघ-निकाय ( ३,२२६; ४, २७६ ) के थम्मन्बन्ध है | यह इस प्रकार हैं- शील, समाधि, प्रशा, विमुक्ति, विमुक्ति-ज्ञान-दर्शन । बुद्ध की शरण में जाने का अर्थ है, धर्म-काय की शरण में जाना; यह उनके रूपकाय की शरण में जाना नहीं है। भिक्षु की भिन्नुता, उसका संवशाल उसका धर्म-काय है। इसी प्रकार बुद्ध का बुद्धत्व, बुद्ध के अनासव-धर्म, उसके धर्म-काय है। दीव-निकाय ( ३, १) में कहा है कि तथागत का यह धर्म-काय अंअधिवचन है। धर्म-काय ब्रह्म-काव है। यह धर्मभूत, ब्रह्मभूत भी है । भगवत् के फलसंपत् का लक्षण धर्म-काय है । फलसंपत् चनुचि है। धर्म-काय का पार्शनपत्ति से इनकी .. न बसवं बुद्धो भगवा मनुम्सलोके अहासानि । आमन्ता-हनिच भगवा लोके जातो बोके सम्बुद्धो लोकं अभिमुय्य विहरनि अनुपलिमो लोकेन, नो बतरे धगधे दुखो भगवा मस्स बोके महासीति । मनुस्सखोककया।