पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२०१

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पाध्याय श्रम प्राप्ति होती है । चार संपत्तियां ये है-ज्ञानसंपत्, प्रहाणसंपत्, प्रभावसंपत्, रूपकायसंपत् । प्रभावसंपत् बाह्य-विषय के निर्माण,परिणाम, और अधिष्टानवशिता की संपत् है । अपूर्व-जाह्म-पंपत् का उत्पादन निर्माण है । पत्थर का सोना बना देना श्रादि परिणाम है। किसी विषय की दीर्घ- काल तक अवस्थान कराने की सामर्थ्य अधिष्ठानवशिता है । प्रभावसंपत् के अन्तर्गत आयु के उत्सर्ग और अधिष्ठानवशिता की संपत् श्रावृत्त-गमन, अाकाशगमन, सुदूर-विप्र-गमन, में बहु का प्रवेश, विविध और स्वाभाविक अाश्चर्य-धों की संपत् भी है । यह अन्तिम भगवन् का सहज प्रभाव है । बुद्धों की यह धर्मता है कि उनके चलने पर निम्नस्थल समतल हो जाता है, जो ऊँचा है, वह नीचा हो जाता है, जो नीचा है वह ऊँचा हो जाता है। अन्धे दृष्टि का, बहरे श्रोत्र का, उन्मत्त स्मृति का, प्रतिलाभ करते हैं । यह धर्मकाय अचिन्त्य है और सब तथागतों द्वारा समान रूप से अधिकृत है । अष्ट- साहसिका-प्रज्ञापारमिता के अनुसार वास्तव में बुद्ध का यही शरीर है । रूपकाय सत्काय नहीं है । धर्मशरीर ही भूतार्थिक शरीर हैं' । आर्यशालिस्तम्बस्त्र के अनुमार धर्मशरीर अनुत्तर है ! वज्रच्छेदिका का कहना है कि बुद्ध का ज्ञान धर्म द्वारा होता है, क्योंकि बुद्ध धर्मकाय है पर धर्मता अविज्ञेय है । धर्म क्या है ? अार्यशालिस्तम्घसूत्र के अनुसार प्रतीत्यसमुत्पाद ही धर्म है । जो इस प्रतीत्यसत्पाद को यथावत् अविपरीत देखता है और जानता है कि यह अजात, अन्यु- पशम-स्वभाव है, वह धर्म को देखता है। यह प्रतीत्यसमुत्पाद बुद्ध के मध्यम मार्ग का सार है । इसको भगवान् ने गम्भीर-नय कहा है । 'तत्वज्ञान अधिगम धर्म के कारण ही बुद्धत्व की प्राप्ति होती है । 'तत्वज्ञान' को 'धर्म' और 'प्रज्ञा दोनों कहते हैं। इसलिए कोई श्राश्चर्य की बात नहीं है जो बुद्ध-स्वभाव को 'धर्म' और 'प्रज्ञा' कहा गया है । अष्टसाहस्त्रिका में प्रज्ञा- 1, तथापि नाम तथागतनेग्रीचित्रीकारेण एतद्धि तथागतानां भूताधिकशरीरम् । तस्कस्य हेतोः ? उक्तं होतद्भगवता धर्मकाया बुद्धा भगवन्तः । मा खलु पुनरिमं भिक्षवः सस्कायं कार्य मन्यध्वम् । धर्मकायपरिनिष्पत्तितो मा भिक्षवो दयन्त्येष च तथागतकायो भूतकोटि प्रभावितो द्रष्टव्यो यहुत प्रज्ञापारमिता । अपि नु खलु पुनभंगवनितः प्रज्ञापारमितातो निर्जातानि तथागतशरीराणि पूजा लभन्ते । [अष्टसाहखिकाप्रज्ञापारमिता, पृष्ठ १४] २. धर्मतो बुद्धा द्रष्टव्या धर्मकाया हि नायकाः । धर्मता चाप्यविज्ञेया न सा शक्या विजानितुम् ।। [बनच्छेदिका, पृ० ५३] ३. यदुक्तं भगवता धर्मस्वामिना सर्वशेन यो भिक्षवः प्रतीत्यसमुत्पादं पश्यति स धर्म पश्यति को धर्म पश्यति स बुद्धं पश्यति" ग इमं प्रतीत्यसमुत्पाई सततसमितं निर्जीवं पयावदविपरीतमजातमभूसमसंस्कृतं प्रतिघमनालम्बनं शिवमभयमहार्यमय्युपशमस्वभावं परपति स धर्म पश्यति । सोऽनुरारं धर्मशरीरं बुद्ध पश्यति । [बोधिचर्यावतारपञ्जिका, ५० ३८६ ]