पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२०३

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षष्ठ अध्याय माध्यमिक-सूत्र के अट्ठारहवें प्रकरण में नागार्जुन कहते हैं कि शून्यता अर्थात् धर्मता चित्त और वाणी का त्रिस्य नहीं है । यह निर्वाण-महश अनुत्पन्न और अनिरुद्ध है। । शून्यता एक प्रकार से सब दृष्टियों का नि सरण है। माध्यमिक की कोई प्रतिज्ञा नहीं है। जो शून्यता की दृष्टि रखते हैं, अर्थात् जिनका शून्यता में अभिनिवेश हैं, उनको बुद्ध ने असाध्य बतायाहै। श्रव शून्यताबादी के अनुसार बुद्धकाय की परीक्षा करनी चाहिये । माध्यमिक-सूत्र में 'तथागतपरीक्षा' नाम का एक प्रकरण है। नागार्जुन कहते हैं कि निष्प्रपञ्च-तथागत के सम्बन्ध में कोई भी कल्पना सम्भव नहीं है। तथागत न शून्य है, न अशून्य, न उभय और न न-उभय । जो प्रपञ्चातीत-तथागत के सम्बन्ध में विविध प्रकार के परिकल्प करते हैं, वे मूद्र पुत्र तथागत को नहीं जानते अर्थात् तथागत की गुण-समृद्धि के अत्यन्त परोनयी है। जिस प्रकार से जन्मान्ध सूर्य को नहीं देखता, उमी प्रकार वह बुद्ध को नहीं देखते। नागार्जुन आगे चलकर कहते हैं कि तथागत का जो स्वभाव है वही स्वभाव इस जगत् का है, जैसे तथागत निःस्वभाव है, उसी प्रकार यह जगत् भी निःस्वभाव है। प्रज्ञापारमिता में कहा है कि सत्र धर्म मायो रम है, मम्य-संत्रुद्ध भी मायोपम है, निर्वाण भी मायोपम है, और निर्वाण से भी विशिष्टतर यदि कोई धर्म हो तो वह भी मायोपम है । माया और निर्माण श्रद्धय हैं । एक सूत्र में कहा है कि तथागत अनास्तव-कुशल धर्म के प्रतिविम्व है, न तथता है, न तथागत, सब लोकों में त्रिम्य ही दृश्यमान है । इन सबका आशय यही है कि शून्यताबादी के मत में बुद्ध निःस्वभाव हैं अथान् बन्नुनिबन्धन से मुक्त हैं और परमार्थ १. निवृरामभिधातव्यं निवृशे चिरागोचरे । अनुपमा मिरुद्धा हि निर्वाणमिव धर्मता। [माध्यमिककृति, पृ० १६४] २. शून्यता सर्वस्ष्टीनां प्रोक्ता निःसरणं जिनः । येपां तु शून्यता दृष्टिस्तानसाध्यान् बभापिरे ।। [ माध्यमिकसूत्र ] ३. प्रपञ्चायन्ति ये बुद्धं प्रपञ्चातीतमव्ययम् । ते प्रपन्चहताः सर्वे न पश्यन्ति तथागतम् ।। [ माध्यमिकसूत्र, २५] १. तथागतो यखभावस्तरस्वभावमिदं जगत् । तथागतो (निःस्वभावो) निःस्वभावमिदं जगत् ।। [माध्यमिकसूत्र, २२।१] १. तथागतो हि प्रतिबिम्बभूतः कुशलरय धर्मस्य अनाश्रयस्य । नैवान तथता न तथागतोऽस्ति बिम्बं च संहरयति सर्वलोके ।। [ माध्यमिकवृति, पृ. ५४६]