पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२०४

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बोड-धर्म-दर्शन सत्य की दृष्टि से तथागत और जगत् का यही यथार्थ रूप है । अब विज्ञानवाद के अनुसार बुद्धकाय की परीक्षा करनी है। विज्ञानवादी का कहना है कि-शून्यता लक्षणों का अभाव है और तत्वतः यह एक अलक्षण 'वस्तु' है । क्योंकि शून्यता की संभावना के लिए दो बातों का मानना परमावश्यक है-१. उस आश्रय का अस्तित्व जो शून्य है और २. किसी वस्तु का अभाव जिसके कारण हम कह सकते हैं कि यह शून्य है, पर यदि इन दोनों का अस्तित्व न माना जाय तो शून्यता असंभव हो जायगी। शून्यता को विज्ञानवादी 'वस्तुमान मानते हैं और यह वस्तुमात्र 'चित्त- विशान' या 'श्रालय-विज्ञान' है, जिनमें सालव और अनासव बीज का संग्रह रहता है । सासव-धीज प्रवृत्ति-धर्मों का और अनासव-बीज निवृत्ति-धर्मो का हेनु है । जो कुछ है, वह चित्त का ही श्राकार है । अगत् चित्तमात्र है। चित्त के व्यतिरिक्त अन्य का अभ्युपगम बिज्ञान- बादी को नहीं मान्य है। इस चित्त के दो प्रभास हैं १. रागादि अाभास २. श्रद्धादि आभास । चित्त से पृथक् धर्म और अधर्म नहीं है । सब कुछ मनोमय है । संसार और निर्वाण दोनों चित्त के धर्म है । परमार्थतः चित्त का स्वभाव प्रभास्वर और अद्वय है तथा वह आगन्तुक दोष से विनिमुक्त है। पर रागादि-मल से श्रावन होने के कारण चित्त संजिष्ट हो जाता है, जिससे आगन्तुक-धमा का प्रवर्तन होता है और संसार की उत्पत्ति होती है। यही प्रवृत्ति धर्म या विज्ञान का संज्ञेश संसार कहलाता है और विज्ञान का व्यवदान ही निर्वाण है । यही शून्यता है । विज्ञानवादी के अनुमार तथता, भूततथता, धर्म-काय, सत्यस्वभाव है । प्रत्येक वस्तु का स्वभाव शाश्वत और लक्षण रहित है। जब लक्षण-युक्त हो जाता है तब उसे माया कहते हैं और जब वह अलक्षण है, तब यह शून्य के समान है। बुद्धत्व ही धर्मकाय है । क्योंकि बुद्धत्व विज्ञान की परिशुद्धि है और यदि विज्ञान वास्तव में संलिष्ट होता तो वह शुद्ध न हो सकता, इस दृष्टि में, बुद्धत्व प्रत्येक वस्तु का शाश्वत और अपरिवर्तित स्वभाव है । त्रिकाय-स्तव नाम का एक छोटा सा स्तोत्र-ग्रन्थ है । इसमें सग्धरा छन्द के सोलह श्लोक हैं | नालन्दा के किसी भिक्षु ने सन् १००० ईसवी (विक्रम सं. १०५७) के लगभग इस स्तोत्र को चीनी अक्षरों में लिपिबद्ध किया था । फाहियान ने चीनी लिपि में उसे लिखा था । तिब्बती भाषा में इसका अनुवाद पाया जाता है और पहले बारह श्लोकों का संस्कृत पाट भी वहीं सुरक्षित है। धर्मकाय के सम्बन्ध का श्लोक यहाँ उद्धृत किया जाता है। इस श्लोक में धर्मकाय की बड़ी मुन्दर व्याख्या की गयी है। कुछ लोगों का अनुमान है कि त्रिकाय-स्तत्र नागार्जुन का है। यो नैको नाथनेको स्वपहितमहासम्पदाधारभूतो नैवाभावो न भावः स्वमिव समरसो निर्विभावस्वभावः । निले निर्विकार शिवमसमसमें व्यापिनं निष्प्रपञ्च यदे प्रत्यात्मवेद्यं तमहमनुपम धर्मकार्य जिनानान् ।। "धर्मकाय एक नहीं है, क्योंकि वह सबको व्याप्त करता है। और सबका श्राभय है; धर्मकाय अनेक भी नहीं है क्योंकि वह समान है। यह बुद्धत्य का श्राश्रय है। यह श्ररूप है।