पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२०८

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१२. बौर-धर्म-दर्शन हैं। अमिताभ बुद्ध का सम्भोग-काय है। यह सुकृत का फल है जैसा त्रिकाय-स्तव में लोकातीतामचिन्त्यां सुकृतशतफलामात्मनो यो विभूति पर्यन्मध्ये विचित्रां प्रथयति महती धीमती प्रीति-हेतोः। बुद्धानां सर्वलोक-प्रवृतमविरतोदारसद्धर्मघोप वन्दे सम्भोगकार्य तमहमिह महाधर्मराज्यप्रतिषम् ।। भगवान् इस काय के द्वारा अपनी विभूति को प्रकट करते हैं। धर्मकाय के असदृश यह काय रूपवान् है पर यह रूप पार्थिव है। चन्द्रकीर्ति सम्भोग-काय के लिये 'रूपकाय? का प्रयोग करते हैं और उसकी तुलना धर्मकाय से करते हैं। मध्यमकावतार की टीका में वह कहते हैं। कि ज्ञान-संभार अर्थात् ध्यान और प्रजा से धर्मकाय होता है, जिसका लक्षण 'अनु- सादा है और पुण्य-संभार रूपकाय का हेतु है। इस 'रूपकाय' को 'नाना-रूप-वाला' कहा है क्योंकि संभोग-काय अपने को अनेक रूपों में (निर्माण-काय) प्रकट करने की शक्ति रखता है । बोधिचर्यावतार पृ. ३२३] में संभोग-काय को 'लोकोत्तर-काय' कहा है । चीन के बौद्ध-साहित्य में भी हम त्रिकाय का उल्लेख पाते हैं । इस साहित्य के अनुसार इन तीन रूपों का भी सूचक है १. शाक्यमुनि (मानुपीबुद्ध), जिनका इस लोक में उत्पाद हुश्रा । यह कामधातु में निवास करते हैं । यही निर्माणकाय है। २. लोचन, यह ध्यानी बोधिसत्त्व हैं । यह रूपधातु में निवास करते है । यह संभोग- काय है। ३. बैरोचन (या थ्यानी-बुद्ध ), यह धर्मकाय है । यह अरूप-धातु में निवास करते हैं । ध्यानी-बुद्ध की स्थिति से वह चतुर्थ बुद्ध-क्षेत्र का श्राधिपत्य करते हैं इस बुद्ध-क्षेत्रमें सब सत्त्व शान्ति और प्रकाश की शाश्वत अवस्था में रहते हैं। ध्यानी-बोधिसत्व की स्थिति से वह तृतीय बुद्ध-क्षेत्र के अधिकारी हैं, जहां भगवान् का धर्म सहज ही स्वीकृत होता है और जहाँ सत्त्व इस धर्म के अनुसार अनायास ही पूर्णरूपेण अाचरण करते हैं। मानुपी-बुद्ध की. स्थिति से बुद्ध द्वितीय और प्रथम क्षेत्र के अधिकारी हैं। द्वितीय-क्षेत्र में अकुशल नहीं हैं, यहाँ सब सत्ल श्रावक और अनागामिन् की अवस्था को प्राप्त होते हैं। प्रथम-क्षेत्र में शुभ और अशुभ, कुशल और अकुशल दोनों पाये जाते हैं। 'त्रिकाय? बुद्ध .. तत्र यः पुण्यसंभारः स भगवती सम्यक्संबुद्धानां शतपुण्यलक्षणवतोऽभूताचिन्त्यस्य नानारूपस्य रूपकायस्य हेतुः, धर्मात्मकस्य कायस्य अनुत्पादलक्षणस्य ज्ञानसंभारों हेतुः [मध्यमावतार टीका, पृ० १२-१३] । २. "हैपबुक प्राक् चाइनिज बुद्धिज्म" वाइ-अनेस्ट जे. एरिटेल । पृ० १७ । पृ०३।