पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२०९

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पछ अन्याय संक्षेप में यदि कहा बाय तो बुद्धव की दृष्टि से त्रिकाय की व्याख्या इस प्रकार होगी। बुद्ध का स्वभाव, बोधि या प्रज्ञा पारमिता या धर्म है । यही परमार्थ-सत्य है । इस शान-संभार के लाभ से निर्वाण का अधिगम होता है। इसीलिए धर्म-काय निर्वाण-स्थित या निर्वाण-सदृश समाधि की अवस्था में स्थित बुद्ध हैं। बुद्ध जब तक निर्वाण में प्रवेश नहीं करते तब तक लोक-कल्याण के लिये वह पुण्य-संभार के फल-स्वरूप अपना दिव्य-रून सुग्वायती या तुषित-लोक में बोधिसत्त्वों को दिखलाते हैं । यह संभोग-काय है । मानुषी-बुद्ध इनके निर्माण काय है जो समय- समय पर संसार में धर्म की प्रतिष्ठा के लिए पाते हैं। दार्शनिक दृष्टि से यदि विचार किया जाय तो धर्म-काय शून्यता है या अलक्षण-विज्ञान है । संभोग-काय धर्मकाय का सत्, चित्, अानन्द या करुणा के रूप में विकास मात्र है । यही चित् जब दूषित होकर पृथग-जन के रूप में विकसित होता है तब वह निर्माण-काय कहलाता है। त्रिकाय की कल्पना हिन्दू-धर्म में नहीं पायी जाती। पर यदि सूक्ष्म रूप से विचार किया जाय तो विदित होगा कि वेदान्त का परब्रह्म, विष्णु और विष्णु के मानुषी अवतार (जैसे राम, कृष्ण) क्रमशः धर्म-काय संभोग-काय और निर्माण-काय के समान है । जिस प्रकार बौद्ध-प्रन्थों में धर्म-काय को निलेप, निर्विकार, अतुल्य, सर्वव्यापी और प्रपंच-रहित कहा है उसी प्रकार उपनिषदों में ब्रह्म को अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य, शान्त, शिव, प्रपञ्चोपशम, निर्गुण, निष्क्रिय, सूक्ष्म, निर्विकल्प, और निरञ्जन कहा है' । दोनों मन और वाणी के विषय नहीं है और दोनों के स्वरूप का निरूपण नहीं हो सकता । जिस प्रकार विष्णु करुणा के रूप है उसी प्रकार बुद्ध भी करुणा के रूप हैं। पुराणों में तथा श्री रामानुजाचार्य-रचित श्रीवैकुण्ठ-गद्य में विष्णु-लोक का जो वर्णन हमको मिलता है उसकी तुलना सुत्रावती-लोक के वर्णन से करने पर कई बातों में समानता पायी जाती है । दोनों लोक दिव्य हैं और प्रत्रुर दिव्य-संपत्ति से ममन्वागत हैं ! दोनों लोकों में सब वस्तु इच्छामात्र से ही सुलभ हैं | दोनों का तेज अनन्त है। विष्णु और अमिताभ परिजनों से परिवृत हैं। विष्णु के शेर, शेगशनादि पार्षद हैं । ये नित्य-मुक्त है । लोग दोनों का स्तुति-पाठ करते हैं । दोनों लोकों में श्राए हुए. नीव सुखपद को 1. अदृष्टमव्यवहार्यमग्राामलक्षणमचिस्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपन्धोपशमं शान्तं शिवमतं चतुर्थ मन्यन्ते स ात्मा स विज्ञेयः । [ माण्डूक्योपनिषत् ] अहेयमनुपादेयमनाधेयमनाश्रयम् । निर्गुणं निष्क्रिय सूचमं निर्विकल्पं निरञ्जनम् । अनिरूप्यस्वरूपं यन्मनो वाचामगोचरम् ॥ [अध्यात्मोपनिषत् ] निकले निष्क्रिये शान्ते निरवचे निरञ्जने । अद्वितीये परे तत्वे योमवत् कल्पना कुः ।। न निरोधो न चोत्पतिर्न बद्धो न च साधकः । न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येपा परमार्थता ।। [भारमोपनिषत् ] माध्यमिक सिद्धान्त से इसकी तुलना कीजिये ।