पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२१६

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१२८ चौड़-धर्म दर्शन अब तक सौत्रान्तिक-साहित्य बहुत कम प्राप्त हो सका है। बसुबन्धु यद्यपि वैभाषिक थे किन्तु सौत्रान्तिकवाद की ओर उनका विशेष मुकाव था। अपने प्रसिद्ध अन्य अभिधर्मकोश और उसके भाष्य में उन्होंने स्थल-स्थल पर इसका परिचय दिया है। अभिधर्म कोश के व्याख्याकार यशोभित्र तो स्पष्ट ही सौत्रान्तिक ये । शुश्रान-च्चांग के अनुसार सौत्रान्तिक-सम्प्रदाय के प्रवर्तक कुमारलाभ या कुमारलब्ध थे । सौत्रान्तिक श्राचार्यों में श्रीलब्ध, धर्मत्रात, बुद्धदेव आदि के नाम आते हैं परन्तु इनके ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हो सके हैं। कुछ विद्वानों ने दिङनाग और उनकी परम्परा के अन्य प्राचार्यों को सौत्रान्तिक माना है । ऐसी अवस्था में सौत्रान्तिक साहित्य विपुल हो जाता है । वस्तुत: सौत्रान्तिक की गणना हीन- यान में किया जाता है जब कि उसके कुछ सिद्धान्त महायान से मिलते हैं, क्योंकि मौत्रान्तिकवाद संक्रमणावस्था का दर्शन है। बौख-संकर-संस्कृत का विकास महावस्तु, ललित-विस्तर आदि ग्रन्थों की भाषा शुद्ध संस्कृत नहीं है। कोई इसे गाथा- संस्कृत कहता है, कोई मिश्र-संस्कृत या बौद्ध-संस्कृत । प्रोफेसर एजर्टन इसे बौद्ध संकर-संस्कृत का नाम देते हैं। प्रो. एजर्टन के अनुसार यह भागा मूलतः मध्यदेश की कोई प्राचीन बोल- चाल की भाषा थी या उस पर आश्रित थी। यह ईमा के पूर्व की भाषा है । किन्तु प्रारंभ से ही हम देखते हैं कि कम से कम हस्तलिखित पोथियों में संस्कृत के प्रति इसका मुकाय है । शब्दों की वर्णना में हम अंशतः संस्कृत का प्रभाव पाते हैं । हमारा अनुमान है कि संस्कृत की बढ़ती हुई प्रतिष्ठा के कारण ऐसा हुआ होगा। इन ग्रन्थों में हम बहुत से शुद्ध-संस्कृत शब्द और रूप पाते हैं । कुछ अांशिक रूप से संस्कृत है, और कुछ ऐसे हैं जो अपने शुद्ध रूप को अपरिवर्तित रखते हैं । इन ग्रन्थों का शब्द-भाण्डार बहुत कुछ मध्य-देशीय है अर्थात् यह शब्द संस्कृत के नहीं हैं अथवा संस्कृत में उनका भिन्न अर्थ है । जहाँ कहीं इनकी वर्णना पर संस्कृत का प्रभाव पड़ा है वहाँ भी इनका मूल-प्रभाव प्रकट हो जाता है। क्योंकि संस्कृत-भाषा में या तो इनका प्रयोग नहीं पाया जाता या वहाँ यह किसी दूसरे ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, संस्कृत का प्रभाव इस भाषा पर बढ़ता गया । लेखकों ने शुद्ध मध्य-देशीय शब्दों का बहिष्कार करना भी प्रारंभ कर दिया और उनके स्थान पर संस्कृत शब्द रखने लगे, किन्तु अधिकतर शब्द-रूप और धातु-रूप के ही संस्कृत-रूप देने का प्रयत्न होता था। ऐसे भी ग्रन्थ हमको मिलते हैं जो बाहर से शुद्ध संस्कृत में लिखे मालूम होते हैं किन्तु सूत्र की परीक्षा करने पर अनेक प्रसंस्कृत रूप और शब्द मिलते हैं । अाजकल जो सज्जन इन ग्रन्थों का संपादन करते हैं वह इस दोष के सबसे बड़े भागी है। वह बिना विचारे असंस्कृत शब्द और रूपों को बहिष्कृत करते हैं। वह समझते हैं कि यह ग्रन्थ भ्रष्ट-संस्कृत में लिखे गये हैं और उनको सुधारना वह अपना कर्तव्य समझते है। किन्तु यह बड़ी भारी भूल है । यह भाषा मध्य-देशीय है, अशुद्ध संस्कृत नहीं । इसलिये हमारा कर्तव्य है कि हम प्रत्येक ऐसे शब्द और रूप को सुरक्षित रखें।