पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२१७

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ससमाध्याय अनेक ग्रन्थों में पद्य की अपेक्षा गद्य-भाग को कहीं अधिक संस्कृत रूप दिया गया है। इस भाषा को किमो परिचित मध्यदेशीय बोली से मिलाना ठीक नहीं है। इसके कई प्रयत्न किये गये हैं किन्तु राब विफल रहे। हम यह भी नहीं बता सकते कि यह भाषा फिस प्रदेश की थी। किन्तु इस भाव की कुछ ऐसी विशं तायें हैं जो अन्य भाषाओं में नहीं पायी जाती। कुछ विद्वानों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि यह भाषा अर्धमागधी है; किन्तु यह टीक नहीं है । कुछ बातों में सादृश्य होने से ऐसा भ्रम हो गया था, किन्तु परीक्षण करने पर यह मालूम हुश्रा कि विभिन्नता कहीं अधिक है। भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को आदेश दिया था कि यह भगवान् के वचन को अपनी- अपनी भाषा में परिवर्तित करें । वैदिक-भाग में बुद्ध-वचन को परिवर्तित करने का निषेध था । इसलिए आगम-ग्रन्थ पालि, प्राकृत,संस्कृत आदि अनेक भाषायों में पाये जाते हैं। इसी आदेश के अनुमार उत्तर भारत की कई बोलियों में बुद्ध-बन्चन उपनिबद्ध किये गए। इन्हीं में से एक बोली पाली थी, जो उन्नयिनी में कदागिन् बोली जाती थी । इम' में त्रिपिटक लिखा गया, जो लंका, बर्मा आदि देशों में मान्य हुा । एक दूगरी बोली, जिसका मूल स्थान-हमको मालूम नहीं है, नौगंकर-संस्कृत का है। संस्कृत की चारों ओर प्रतिष्ठा होने से धीरे-धीरे इस पर संस्कृत का प्रभाव पड़ने लगा। प्रारंभ में यह प्रभाव थोड़ा और अांशिक था। आगे चलकर इसमें वृद्धि हुई किन्तु पूर्णरूपेण संस्कृत का प्रभाव नहीं पड़ सका। प्रो. एजॉन ने इस भाषा का व्याकरण और कोश लिग्त्रकर बड़ा उपकार किया है। ये ग्रन्थ येल विश्वविद्यालय से सन् १९५३ में प्रकाशित हुए हैं। महावस्तु हीनयान का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ महावस्तु या महावस्तु-अवदान है । महासाचिक और लोको नरवादी बौद्ध-निकाय का उद्भव कैसे हुआ। इसका विचार पर ले हमने किया है । महा- वस्तु इन्हीं लोकोत्तरवादी महासांघिकों का विनय-ग्रन्थ है । हीनयान के अनेक महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थों में इसकी गणना है । महावस्तु का प्रथम संपादन सेना (६० सेना ) ने तीन भागों में सन् १८८२-१८६७ में किया है। महावस्तु का अर्थ है "महान् विश्य गा कथा" अर्थात् उपसंपदा इत्यादि बौद्ध-विनय-सम्बन्धी कथा । पालि-विनय के 'महार' के प्रारम्भ के बोधिप्राप्ति का, धर्मचक्रप्रवर्तन का तथा संघ-स्थापना का वर्णन है। उसी प्रकार महावस्तु में भी भगवान बुद्ध का जीवन चरित और संत्र-स्थापना का वर्णन मिलता है। महावस्तु के प्रारम्भ में ही चार बोधिसत्व-चर्यायों का वणन दिया गया है-प्रकृतिचर्या, प्रणिधानचर्या, अनुलोम- चर्या और अनिवर्तनचर्या । इन चार चर्यानों की ति से बोधिसत्व बुद्धत्व की प्राप्ति करते है। इन चर्याओं का उल्लेख कर के ग्रन्थ का नाम दिया गया है.---'पार्यमहातांधिकानां लोकोत्तर- वादिनां मध्यदेशिकानां पाठेन विनयपिटकस्य महावनुनो' ..., श्रादि । इस परिचय के बाद चतु- विध उपसंपदायों का वर्णन है । स्वाभ उपसंपदा, पहिभिक्षुकाय उपसंपदा, दशवर्गण गणेन उफ- संपदा, और पंचवर्गेण गणेन उपसंपदा ।