पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२१९

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सप्तम भध्याय सुत्त; धम्मपद का सहस्सबमा, दीघनिकाय का महागोविन्दसुत्त और मज्झिमनिकाय का दीघनख- सुत्त आदि अनेक ऐसे सुत्तन्त है बो 'महावस्तु में पूर्णतया पाये जाते हैं । 'महावस्तु का आधा से अधिक भाग जातक और अन्य कथानों से भरा है जो सामान्यतः पालिजातकों का अनुसरण करता है। महावस्तु के काल का निश्चय करना कठिन है । किन्तु इममें सन्देह नहीं कि इसका मूलरूप प्राचीन है । इसके वह अंश जो पालिनिकाय में भी पाये जाते हैं, निश्चित रूप से प्रति प्राचीन है। इसको भाषा भी इसकी प्राचीनता का सूचक है । समग्र ग्रन्थ 'मिश्र-संस्कृत में लिखा गया है, बन कि महायान के ग्रन्थों में मिश्र-संस्कृत और शुद्ध-संस्कृत, दोनों का प्रयोग पाया जाता है । लोकोत्तरवाद का ग्रन्थ होना भी इसकी प्राचीनता को सिद्ध करता है । ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थ के मूलरूप की रचना ईसा से २०० वर्ष पूर्व हुई किन्तु ग्रन्थ का समय- समय से विस्तार होता रहा । हूण और चीनी भाषा तथा लिपि का उल्लेख होने से यह सिद्ध होता है कि अन्य के कुछ अंश चौथी शताब्दी के हैं। ललित-विस्तर ललित-विस्तर महायान सूत्र-ग्रन्थों में बहुत पवित्र माना जाता है। इसकी गणना वैपुल्य-सूत्रों में है। प्रारंभ में हीनयानान्तर्गत सर्वास्तिवादी निकाय का यह ग्रन्थ था । इसमें बुद्धचरित का वर्णन है। भूमण्डल पर भगवान् बुद्ध ने जो क्रीडा ( = ललित ) की उसका वर्णन होने के कारण ग्रन्थ का नाम ललित-विस्तर पड़ा। अभिनिष्क्रमण-सूत्र (नेञ्जियो सूची नं०६८०) के अनुसार इसको महाव्यूह भी कहते हैं । डाक्टर एस. लेफमान ने इस ग्रन्थ के प्रारंभ के कुछ अध्यायों का अनुवाद वर्लिन से १८७५ ईस्वी में प्रकाशित किया था। विब्लिश्रोथिका इण्डिका नामक ग्रन्थमाला के लिए डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र ने ललित-विस्तर का अंग्रेजी अनुवाद तैयार किया था; पर १८८१ से १८८६ के बीच में केवल पन्द्रह अध्यायों का ही अनुवाद प्रकाशित हो सका । डा. राजेन्द्रलाल मित्र ने मूल ग्रन्थ का भी एक अपूर्ण संस्करण निकाला था। सम्म मूल-ग्रन्थ का संपादन डाक्टर एस, लेफमान ने किया। इसका फ्रेंच अनुवाद फको ने एनल द मुसे गिमे (जिल्द ६ और १६, पेरिस सन् १८८४-१८६२ ) में प्रकाशित किया । तिब्बती भाषा में इस ग्रन्थ का अनुवाद पांचवी शताब्दी में हुअा था। पहले अध्याय में यह तलाया है कि एक समय रात्रि के मध्य-याम में भगवान् समा- घिस्थ हुए । उसी क्षण भगवान् के उम्णीय-विवर से रश्मि प्रादुर्भूत हुई,जिसने सब देव-भवनों को अपने प्रकाश से श्रवभासित किया और देवताओं को सुब्ध किया। रात्रि के व्यतीत होने पर ईश्वर, महेश्वर इत्यादि देवपुत्र जेतवन आये और भगवान् की पाद-बन्दना कर एक ओर बैठ गये और कहने लगे, "भगवन् ! ललित-विस्तर नामक धर्मपर्याय का श्राप व्याकरण करें। भगवान् का तुषितलोक में निवास, गर्भावक्रान्ति, जन्म, बालचर्या, सर्वमारमण्डलविध्वंसन इत्यादि विषयों का इस ग्रन्थ में वर्णन है। पूर्व तथागतों ने भी इस प्रन्ध का व्याकरम किया था।