पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सप्तममध्याय सरवाद नामका वाद ही प्रचलित होता । इससे स्पष्ट है कि लोकोत्तरवादियों के मत में 'लोको- तर का कोई विशेष अर्थ है । श्रानन्द-बुद्ध के संवाद से यह प्रकट होता है कि लोकोत्तरवादी बोधिसत्व की गर्भावक्रान्ति-परिशुद्धि में विश्वास करते थे और उनको अचिन्त्य मानते थे। श्रागे चलकर ललितविस्तर का वर्णन महावग्ग की कथा से बहुत कुछ मिलता जुलता है । जहाँ समानता है वहां भी कुछ बातें ललित-विस्तर में ऐसी वर्णित हैं जो अन्य ग्रन्थों में नहीं पाई बाती । ऐसी दो कथानों का हम यहां पर संक्षेर में उल्लेख करते हैं। एक कथा आठवें अध्याय में वर्णित है । शाक्यों ने राजा शुद्धोदन से कहा कि कुमार को देवकुल में ले चलना चाहिये । जब कुमार को प्राभूषण पहनाये गये तब स्मितपूर्वक कुमार बोले 'मुझसे बढ़कर कौन देवता है ? मैं देवातिदेव हूँ। जब कुमार ने देवकुल में पैर रखा तब सब प्रतिमायें अपने-अपने स्थान से उठीं और उनके पैरों पर गिर पड़ीं; प्रतिमाओं ने अपना-अपना स्वरूप दिखाकर भगवान् को नमस्कार किया। इसी प्रकार दशवें अध्याय में बोधिसत्व की लिपिशाला में जाने की कथा है। अनेक मंगल-कृत्य करके दश हजार बालकों के साथ कुमार लिपिशाला में ले जाये गये । श्राचार्य विश्वामित्र कुमार के तेज को न सह सके और धरणितल पर अधोमुख गिर पड़े । तब शुभांग नाम के तुपित-कायिक देवपुत्र उन्हें उठाया और उपस्थित राजा और जन-काय को सम्बोधित करके कहा--"यह कुमार मनुष्य-लोक के सभी शास्त्र, संख्या, लिपि, गणना, धातुतंत्र और अप्रमेय लौकिक शिल्पयोग में अनेक कल्प-कोटियों के पूर्व ही शिक्षित हैं। किन्तु लोकानुवर्तनी के हेतु अनेक दारकों को अग्रयान में प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से और असंख्य सलों का विनयन करने के लिए आज यह कुमार लिपिशाला में श्राये हैं । लोकोत्तर चार श्रार्य-सत्यायों में जो विधिज्ञ है, जो हेतु-प्रन्यय में कुशल है और जो शीतीभाव को प्राप्त है उसे लिपिशास्त्र में भला क्या जानना है ? त्रिलोक में भी इसका कोई प्राचार्य नहीं है, सर्व- देवमनुष्यों में यही ज्येष्ठ हैं। कल्पकोटियों के पहले इसने जिन लिपियों का शिक्षण पाया है उनके नाम भी आप जानते नहीं है; यह शुद्धसत्व एकक्षण में जगत् की विविध और विचित्र चित्तधाराओं को जानता है । श्रहश्य और रूपरहित की गति को जाननेवाले इस कुमार को दृश्यरूप लिपि को जानना क्या कठिन है ?” इस प्रकार सम्बोधन करके यह देवपुत्र अन्तहित हुश्रा । धात्री और चेटीवर्ग को कुमार के पास छोड़कर शुद्धोदन राजा और जन-काय घर लौटे। तब बोधिसत्व ने उग सागर चन्दनमय लिपि-फलक को लाकर विश्वामित्र श्राचार्य को कहा- 'भो उपाध्याय ! श्राप :झे किस लिपि की शिक्षा देंगे ?? बोधिसत्व ने ब्राझी, खरोष्ठी, पुष्करसारि, अंग, वंग, मगध, प्रादि ६४ लिपियां गिनाई । प्राचार्य ने कुमार के कौशल को देखकर उसका अभिनन्दन किया। इसी प्रकार १२ और १३ परिवों में कुछ ऐसी कथायें वर्णित है, जो अन्यत्र नहीं पायी जाती किन्तु १५-२६ परिक्तों में कथामुख में थोड़ा ही अन्तर पाया जाता है । बुद्ध के जीवन की प्रधान घटनायें ये है: :-चार पूर्व-निमित्त, जिनसे बुद्ध ने बरा, व्याधि, मृत्यु और प्रवज्या-शान प्राप्त किया । अभिनिष्कमण, बिंबिसारोपसंक्रमण, दुष्करचर्या, मारधर्षण, अभि- संबोधन और धर्मदेशना । जहाँ तक इनका संबन्ध है ललित-विस्तर की कथा कुछ बहुत भिन्न