पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२२७

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ससम अध्याय प्राधार विद्वान् इस पर सहमत हैं कि यह अश्वघोष की रचना नहीं है, हस्तलिखित पोथी का काल ही इसका निर्णय करने में पर्याप्त है। यह निश्चित है कि अश्वघोप हीनयान के अनुयायी थे। चीनी अाम्नाय के अनुसार वह सर्वास्तिवादी थे और पार्श्व (= पूर्ण या पूर्णाश ) ने उनको बौद्ध-धर्म में दीक्षित किया था। किन्तु अश्वघोष विभाषा के सिद्धान्तों से अपरिचित थे। यदि वह सर्वास्तिवादी ये तो वह ऐसे समय में रहे होंगे जब विभाषा के मुख्य-सिद्धान्त स्थिर नहीं हुए थे। सौन्दरनन्द, १७ वा सर्ग, श्लोक १८ देखिाए । "यस्मादभूत्वा भवतीह सर्वे, भृत्वा च भूयो न भवत्यवश्यम्। सर्वास्तिवादी इमका प्रतिषेध करते हैं। यह विचार मज्झिम-निकाय ( ३, २५) के है । पुनः सौन्दरनन्द के १२ वें सर्ग में श्रद्धा की बड़ी महिमा बतायी गयी है । इसकी समता केवल पूर्वकालीन महायान-सूत्र में पायी जाती है। श्रद्धा केवल धर्मच्छन्द नहीं है, यह बुद्ध के प्रति भक्ति है । सर्वास्तिवाद के अागम में इसका कोई महत्व नहीं है किन्तु अश्वघोष इम पर बहुत जोर देते हैं । अश्वघोष कहते हैं। श्रद्धांकुरमिर्म तस्मात् संबद्धयितुमर्हसि । तवृद्धौ वर्धते धर्मों मूलबद्धौ यथा द्रुमः ॥४१॥ जहाँ वसुबन्धु सौन्दरनन्द के एक ऐसे श्लोक का उद्धरण देते हैं किन्तु अश्वघोष का उल्लेख नहीं करते, वहीं सप्तसिद्धि के रचयिता हरिबर्मा अश्वघोष को प्रमाण मानते हैं । सत्य- सिद्धि (पूरों के अनुमार 'तत्वसिद्धि') के दो उद्धरण अश्वघोष की उक्तियों से मिलते जुलते है, किन्तु उनका उल्लेख अभिधर्मकोश में नहीं है। अनित्य के सम्बन्ध में इसमें कहा है कि धर्म अनित्य है क्योंकि उनके हेतु अनित्य है । सौन्दरनन्द सर्ग १७, श्लोक १८ में इसी प्रकार की उक्ति है । पुनः एक दूसरे स्थान पर कहा है-स्कन्ध, धातु, श्रायतन और हेतु-प्रत्यय- सामग्री है और कोई कर्ता और भोक्ता नहीं है। ये विचार सौन्दरनन्द, सर्ग १७, श्लोक २० में पाये जाते हैं । इससे यह स्वाभाविक अनुमान है कि अश्वघोष या तो बहुश्रुतिक हैं या किसी ऐसे निकाय में प्रपन्न हैं जिससे बहुश्रुतिक निकले हैं । बहुश्रुतिक के सम्बन्ध में हमारा शाल वसुमित्र के ग्रन्थ पर आश्रित है । वसुभित्र के अनुसार बहुश्रुतिक दो वस्तुओं को छोड़कर अन्य विषयों में सर्वास्तिवादी थे। उनका विचार था कि अनित्य, दुःख, शून्य, अनात्मक और शान्त (=निर्वाण) के सम्बन्ध में बुद्ध की शिक्षा लोकोत्तर है, क्योंकि यह निःसरण मार्ग है । सौन्दर- नन्द सर्ग १७, श्लोक १७-२१, का मत सत्यसिद्धि के मत से मिलता है। अतः अश्वघोष बहुश्रुतिक हैं, बहुश्रुतिक महासांघिक की शाखा और इसलिए यह महादेव के ५ वस्तुओं को स्वीकार करते हैं। इनमें से चतुर्थ के अनुसार अर्हत् पर-प्रत्यय से ज्ञान प्राप्त करते हैं, यह साट है कि पर-प्रत्यय के लिए श्रद्धा अत्यन्त श्रावश्यक है । कोश के अनुसार यह व्यक्ति श्रद्धानुसारी है । जान्सटन का कहना है कि यहाँ हमको मालूम होता है कि अश्वघोष श्रद्धा पर क्यों इतना जोर देते हैं । बान्सटन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अश्वघोष बहुश्रुतिक या कौकुलिक है।