पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२२९

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सक्षम अध्याय इस ग्रन्थ की रचना में कोई योजना नहीं दीखती। भाषा और शैली भी एक प्रकार की नहीं है। अधिकांश कथायें सरल संस्कृत-गद्य में लिखी गयी है। बीच-बीच में गाथायें उप- न्यस्त है किन्तु कुछ ऐसी भी कथायें हैं जिनमें समामान्त पदों का बाहुल्य से प्रयोग किया गया है और प्रौढ़ काव्य के छन्द व्यवहृत हुए हैं। ग्रन्थ के भिन्न-भिन्न भाग एक काल के नहीं है । कुछ ऐसे अंश हैं जो निश्चित रूप से तीसरी शताब्दी (ईमा) से पूर्व के हैं, किन्तु संग्रह चौथी शताब्दी से पूर्व का नहीं हो सकता । 'दीनार शब्द का प्रयोग बार-बार अाता है । इसमें शुंग- वंश के राजाओं का भी उल्लेग्त्र है । पुनः शार्दूल-कर्णावदान का अनुवाद चीनी-भाषा में २६५ ई. में हुआ था। दिव्यावदान में अशोकावदान और कुमारलात की कल्पनामंडितिका से अनेक उद्धरण हैं। दिव्यावदान की कई कथायें अत्यन्त रोचक हैं। उपगुम और मार की कथा और कुणालावदान इसके अच्छे उदाहरण है अवदान-शतक की सहायता से अनेक अवदान-मालाओं की रचना हुई । यथाः-कल्प- बुमावदानमाला, अशोकावदानमाला । द्वाविंशत्यवदानमाला भी अवदान शतक का ऋणी है । अवदानों के अन्य संग्रह भद्रकल्यावदान और विचित्रकणिकावदान हैं। इनमें से प्रायः सभी अप्र- काशित है। कछ केवल तिब्बती और चीनी अनुवाद मिलते है । क्षेमेन्द्र कवि की अवदान-कल्पलता का उल्लेख करना भी आवश्यक है। इस अन्य की समाप्ति १०५२ ई० में हुई। तिब्बत में इम ग्रन्थ का बड़ा आदर है। इस संग्रह में १०७ कथायें हैं । क्षेमेन्द्र के पुत्र सोमेन्द्र ने ग्रन्थ की भूमिका ही नहीं लिखी किन्नु एक कथा भी अपनी ओर से जोड़ दी। यह जीमूतवाहन-अवज्ञान है । महायान-सूत्र महायान-सूत्र अनेक हैं किन्तु इनमें से कुछ ग्रन्थ ऐसे हैं जिनका विशेष रूप से बाहर है। इनकी संख्या ६ है । ये इस प्रकार हैं-श्रष्टसाहसिका-प्रज्ञा-पारमिता, सद्धर्मपुण्डरीक, ललित- विस्तर, लंकावतार, सुवर्णप्रभास, गण्डव्यूह, तथागत-गुह्यक, समाधिराज और दशभूमीश्वर । इन्हें नेपाल में नवधर्म (धर्मपर्याय ) कहते हैं। इन्हें वैपुल्यसूर भी कहते हैं । नेपाल में इनकी पूजा होती है। सबर्म-पुण्डरीक-महायान के वैपुल्य-सूत्रों का सर्वोत्कृष्ट-ग्रन्थ सद्धर्म-पुण्डरीक है । महायान की पूर्ण प्रतिष्ठा होने के बाद ही संभवतः इस ग्रन्थ की रचना हुई। इस ग्रन्थ का संपादन ई० २६१२में प्रो. एच, कर्न और प्रो. बुयिउ नंजियो ने किया है। 'सद्धर्म-पुण्डरीक' नाम के बारे में एम. अनिसाकी कहते हैं-'पुण्डरीक' अर्थात् 'कमल' शुद्धता और पूर्णता का चिन्ह है। पंक में उत्पन्न होने पर भी जिस प्रकार कमल उससे उपलिस नहीं होता उसी प्रकार बुद्ध इस लोक में उत्पन्न होने पर भी उससे निर्लिस रहते हैं। यह ग्रन्थ चीन जापान श्रादि महायानधर्मी देशों में बहुत पवित्र माना जाता है । चीनी-भाषा में इस मूल-ग्रन्थ के छः अनुवाद हुए, जिसमें सबसे पहला अनुवाद ईस्वी सन् २२३ में हुआ । धर्मरक्ष, कुमारजीव, शानगुप्त और धर्मगुस इन प्राचार्यों के अनुवाद भी पाये जाते हैं। चीनी-परंपरा के अनुसार इस ग्रन्थ पर बोधिसत्व