पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२३३

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और बुद्ध्यान बताते हैं लेकिन अन्त में वह सबको बुद्धयान की ही देशना करते हैं। वही श्रेष्ठयान है, वही महायान है । यह ौपम्य परिवर्त नाम का तीसरा परिवर्त है । शारिपुत्र के बारे में भगवान् ने वो व्याकरण किया उसे सुनकर आयुष्मान् सुभूति, महाकाश्यप, महामौद्गल्यायन श्राश्चर्यचकित हुए और उन्होंने भगवान् से कहा :--भगवन् ! इस भितु-संघ में हम बीर्ण, वृद्ध, एवं स्थविर संमत है; हम निर्वाण को प्राप्त है; इसलिए अनुत्तरा सम्यक् संबोधि के विषय में हम निरुद्यम हैं। अब भगवान् उपदेश देते है तब भी इम शून्यता, अनिमित्त और श्रप्रणिहित का ही विचार करते हैं, किन्तु भगवान् से उपदिष्ट बुद्ध- धमों में या बोधिसत्व-विक्रीडित में हमें स्पृहा उत्पन्न नहीं हुई है। भगवन् ! हम तो निर्वाण- संशी थे । अब भगवान् ने तो यह भी बताया कि हमारे जैसे अहंत भी संबोधि की प्राप्ति करके तथागत बन सकते हैं। श्राश्चर्य है भगवन् ! अद्भुत् है भगवन् ! अचिन्तित, अप्राप्ति ही भगवान् से एक अप्रमेय-रत्न हमें अाज मिला है। यह अधिमुक्ति-परिवर्त नाम का चौथा परिवर्त है । जैसे कोई जात्यन्ध हो और वात, पित्त, श्लेष्म से पीड़ित हो; उसे कोई महावैद्य अनेक श्रौषधियों से व्याधि का प्रशमन कर दृष्टिलाम करा दे; उसी प्रकार तथागत एक महावैद्य है, मोहान्य गल्व जात्यन्ध है । राग, द्वेष, मोह, वात, पित्त, श्लेष्म हैं; शून्यता, अनिमित्त और अप्रणिहित औषधि या निर्वाण द्वार है। इस शून्यतादि विमोक्षसुखों की भावना करके अविद्या का निरोध करते हैं । अविद्या के निरोध से संस्कार का निरोध और क्रम से इस महान् दुःख- स्कन्ध का निरोध होता है। इस प्रकार वह न पाप में स्थित होता है न कुशल में प्रतिष्ठित होता है । यही उस जन्मान्ध का चतु-लाम है । जिस प्रकार अन्ध को चक्षु का लाभ होता है उसी प्रकार यह भावक और प्रत्येक- बुद्धयानीय है । वह संसार के क्लेशबन्धनों का छेद करके षड्गतियों से और धातुक से मुक्त होते हैं । इसी से श्रावकयानीय ऐसा मानता है और कहता भी है-"दूसरे कोई अमिसम्बो- व्य धर्म अब बाकी नहीं है। मैं निर्वाण को प्राप्त हुआ हूँ।" तब तथागत उसे धर्म की देशना करते हैं कि जो सर्वधर्मों को प्राप्त नहीं हुआ उसका निर्वाण कैसे। तब भगवान् उसे बोधि में स्थिर करते हैं। बोधिचित्त को उत्पन्न करके वह न संसार में स्थित होता है और न निर्वाण को ही प्राप्त होता है । वह वैधातुक का अवबोध करके दश दिशाओं में शल्य निर्मितोपम, मायोपम, स्वप्नमरीचिकोपम, लोक को देखता है । वह सर्व धर्मों को अनुत्पन, अनिरुद्ध, अबद्ध, अमुक्त-स्वभाव में देखता है। हे काश्यप ! तथागत सत्वविनय में सम है, असम नहीं । जिस प्रकार चन्द्र और सूर्य की प्रभा सर्वत्र सम होती है इसी प्रकार सर्वश-हार चित्तप्रभा पंचगतियों में उत्पन्न सत्वों में उनके अधिमुक्ति के अनुसार महायानिक, प्रत्येक बुद्धयानिक और आवकयानिकों में समभाव से सद्धर्म- देशना को प्रवर्तित करती है। इससे सर्वज्ञानप्रभा की किसी प्रकार न्यूनता किंवा अतिरिकता सैभावित नहीं होती। हे काश्यप ! यान तीन नहीं हैं, केवल सत्व ही अन्योन्य चरित हैं, उनके अनुसार तीन यानों की प्रशापना है।