पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२३४

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पोर-गर्म-पर्यन तब आयुष्मान् महाकाश्यप ने भगवान से पूछा-भगवन् ! यदि तीन यान वास्तव में नहीं है तो आपक, प्रत्येकजुद्ध और बोधिसत्व यह तीन प्राप्तियां क्यों है । भावान् ने कहा- हे काश्यप ! जिस प्रकार कुम्भकार एक ही मृत्तिका से अनेक भाजन बनाता है; उनमें से कोई गुडभाजन, कोई घृत-भाजन और कोई क्षीर-भाजन होता है । इससे मृत्तिका का नानात्व तो नहीं होता; किन्तु द्रव्यप्रक्षेपमात्र से भाजनों का नानात्व होता है । इसी प्रकार हे काश्यप ! बुद्धयान ही वास्तव में एक यान है,दूसरा या तीसरा कोई याननहीं है।" तब आयुष्मान् महाकाश्यप ने पूछा:--"भगवन् ! यदि सत्व नानाधिमुक्त र वे वैधातुक से निःसृत है तो क्या उनका एक ही निर्वाण है या दो या तीन है भगवान ने कहा-काश्यप ! सर्वधर्म-समतावबोध से ही निर्वाण होता है। यह एक ही है, दो या तीन नहीं ।' महाकाश्यप आदि स्थविरों का यह वचन सुनकर भगवान् ने कहा-साधु, साधु, महाकाश्यप ! तुमने ठीक ही कहा है । हे काश्यप ! तथागत धर्मस्वामी, धर्मराज और प्रभु हैं। वे सर्वधर्मों का युक्ति से प्रतिपादन करते हैं। जिस प्रकार इस त्रिसाहनमहासाहस्र-लोकधातु में पृथ्वी, पर्वत और गिरि कन्दरों में उत्पन्न हुए जितने तृण, गुल्म, श्रौषधि और वनस्पतियाँ हैं, उन सबको महाजल मेघ समकाल में वारिधारा देता है, वहां यद्यपि एक धरणी पर ही तरुण एवं कोमल तृण, गुल्म, औषधियां और महाद्रुम भी प्रतिष्ठित हैं और वे एक तोय से अभि- ध्यन्दित है, तथापि अपने अपने योग्यतानुरूप ही जल लेते हैं और फल देते हैं । ठीक इसी प्रकार जब तथागत इस लोक में उत्पन्न होकर धर्म-वर्षा करते हैं तब बहुसहस सत्व उनसे धर्मश्रवण करने आते हैं। तथागत भी उन सत्वों के श्रद्धादि इन्द्रिय, वीर्य और परापरवैमात्रता को जानकर मिन-भिन्न धर्मपर्यायों का उपदेश करते हैं। सत्व भी ययावल यथास्थान सर्वंशधर्म में अभिमुक्त होते है। जिस प्रकार मेघ एक जल है उसी प्रकार तथागत जिस धर्म का उपदेश देते हैं वह सर्वधर्म एकरस है-विमुक्तरस, विरागरस, निरोधरस और सर्वज्ञान-पर्यवसान है । इस सर्वज्ञशान- पर्यवसान धर्म का उपदेश देते समय तथागत श्रोताओं की हीन, मध्यम और उत्कृष्ट अधिमुक्ति को भी मानते हैं। इसलिए, काश्यप ! मैं निर्वाणपर्यावसान, नित्यपरिनिवृत्त, एकभूमिक और अाकाशगतिक अधिमुक्ति को जानकर, सल्लों के रक्षण के लिए, सहसा सर्वज्ञान को प्रकाशित नहीं करता । इसलिए तुम मेरे पान के उपदेश को दुर्विज्ञेय मानते हो। इसलिए है काश्यप ! बोधि की प्राप्ति ही वास्तविक प्राप्ति है। प्रज्ञामध्यव्यवस्थानात्प्रत्येकजिन शून्यज्ञानविहीनत्वाच्छ्रावकः संप्रभाष्यते।। सर्वधर्मावबोधात्तु साम्यक्संबुद्ध उच्यते । तेनोपायशतैनित्यं धर्म देशेति प्राणिताम् ।। [१, २-५३] यह औषधी-परिवर्त नाम का पंचम परिवर्त है। व्याकरण-परिवर्त नाम के छठे परिवत में अनेक भावकयान के स्थविरों के बारे में ध्याकरण किया गया है । बुद्ध कहते है कि "श्रावक काश्यप भविष्य में रश्मिप्रभास नाम के उच्यते ।