पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२३५

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ससमभभ्याब ११७ तथागत होंगे, स्थविर सुभूति 'शशिकेतु नाम के तथागत होंगे; महाकात्यायन चाम्बूनदप्रभास नाम के तथागत होंगे और स्थविर महामौद्गल्यायन तमालपत्रचन्दनगन्ध नाम के तथागत होंगेइत्यादि । पूर्वयोग-परिवर्त नाम के सप्तम परिवर्त में अतीतकाल के एक महाभिशाज्ञानाभिभू नाम के तथागत का और उनकी चर्या का वर्णन है। पंचभितशतव्याकरणा-परिवर्त में पूर्ण मैत्रायणी पुत्र आदि अनेक भिक्षुओं के बुद्धत्व प्राप्ति का व्याकरण किया गया है । नवम व्याकरण-परिवर्त में आयुष्मान् श्रानन्द और राहुल अादि दो सहस्र श्रावकों के बारे में भी बुद्धत्व-प्राप्ति का व्याकरण है । दशम धर्ममागक-परिवर्त में भगवान् कहते हैं कि इस परिषद् में जिस किसी ने इस धर्मपर्याय की एक भी गाथा सुनी हो या एक चित्तोत्पाद से भी इसकी अनुमोदना की हो वे सभी अनागत काल में बुद्धत्व को प्राप्त करेंगे। एकादश स्तूपसंदर्शन परिवर्त में बताया गया है कि इस धर्मपर्याय के उपदेश के बाद भगवान् के सामने ही परिषद् मध्य से एक सप्तरत्न- मय स्तूप अभ्युद्गत हुश्रा और अन्तरिक्ष में प्रतिष्ठित हुअा। भगवान ने कहा-हे बोधिसत्व ! इस महास्तूप में तथागत का शरीर स्थित है उसी का यह स्तूप है, इस परिवर्त में भगवान् के अनेक प्रातिहार्य बताए गऐ हैं जो अद्भुत धर्म है | इस स्तूप में भी बुद्ध का एक विश्वरूपदर्शन जैसा दर्शन प्राप्त होता है। उसका दर्शन सागर नागराज की कन्या को हुआ जिसने परमभक्ति से अपना महाध-मणि भगवान् को समर्पित किया। उसी क्षण सर्वलोक के सामने उस नागकन्या का स्त्रीन्द्रिय अंतर्हित हुश्रा और पुरुपेन्द्रिय प्राप्त हुअा। वह बोधिसत्व के रूप में स्थित हुई। बारहवें उत्साह-परिवर्त में अनेक बोधिसत्व और भिन्तु भगवान् से कहते है "भगवन् ! आप इस धर्मपर्याय के विषय में अल्मोत्सुक । हम तथागन के परिनिर्वच होने पर इस धर्मपर्याय को प्रकाशित करेंगे। यद्यपि भगवन् ! अनागत काल सत्व परीत्तकुशल मूल और अधिमुक्ति विरहित होंगे तथापि हम शान्तिबल को प्राप्त करके इस सूत्र को धारण करेंगे, उपदेश करेंगे, उसे लिखेंगे । अपने काय और जीवित का उत्सर्ग करके भी हम इस सूत्र का प्रकाशन करेंगे। भगवान् इस विषय में अल्मोत्सुक, निश्चिन्त हो ।' उस समय महाप्रजापती गोतमी और भिक्षुणी राहुल-माता यशोधरा उसी परिषद् में दुःखी होकर बैठी थी कि भगवान् ने हमारे बारे में बुद्धत्व का याकरण क्यों नहीं किया । मग- वान् ने उनके चित्त का विचार जानकर कृपा से उनका भी व्याकरण किया । सुखविहार-परिवर्त नाम के त्रयोदश-परिवर्त में भगवान् बताते हैं कि जो बोधिसत्त्व प्राचार गोचर में प्रतिष्ठित हो, सुख-स्थित हो, धर्मप्रेम से पूर्ण हो और मैत्री-विहार से युक्त हो ऐसा ही बोधिसत्व इस धर्मपर्याय का उपदेश करने योग्य है । चतुर्दश बोधिसत्व पृथिवी-विवर-समुद्गम-परिवर्त में गंगा नदी बालुकोपम संख्या के बोधिसत्वों का दर्शन होता है। तथागतायु प्रमाण-परिवर्तनामक पंद्रहवें परिवर्त में बुद्ध के लोकोत्तर भाव का परिचय मिलता है। वहाँ भगवान् कहते हैं ---हे कुलपुत्रों ! लोग ऐसा मानते है कि भगवान् शाक्यमुनि ने शाक्यकुल से अभिनिष्क्रमण करके गया में बोधिमण्ड के नीचे अनुसरा सम्यक-संबोधि की प्राप्ति की है । हे कुलपुत्र ! ऐसा नहीं है। अनेक कोटि कल्लों के पहले ही मैंने सभ्यक-संबोधि की