पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२३६

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पौर-बर्मन प्राप्ति की है। जब से मैंने इस लोकधातु में सत्वों को धर्मोपदेश देना प्रारंभ किया है, तब से श्रावतक मैंने जिन सम्यक् सम्बुदों का परिकीर्तन किया है, दीपंकर प्रभृति तथागतों के निर्वाण का मो वर्णन किया है वह सब मैंने उपाय-कौशल्य से धर्मदेशना के लिए ही किया है । बो सत्व अल्पकुशल मूल संयुक्त है, उन्हें मैं कहता हूँ कि मैं दहर हूँ, अभी ही मैंने सम्यक् संबोधि की प्राप्ति की है । यह मेरा कहना केवल सत्वों के परिपाचनार्थ ही है । सत्वों के विनय के लिए ही ये सर्वधर्मपर्याय है। सत्वों के ही उपकार के लिए. तथागत प्रात्मालम्बन या परालम्बन से उपदेश देते हैं। किन्तु तथागत ने सत्य का दर्शन किया है. कि यह धातुक न भूत है न अभूत, न सत् है, न असत् , न संसार है, न निर्वाण । वस्तुतः भगवान् चिरकाल से अभिसंबुद्ध है और अपरिमित श्रायु में स्थित है । तथागत अपरिनिर्वृत्त है, केवल वैनेयवश होकर परिनिर्वाण को बताते हैं:- अपरिनिर्वृत्तस्तथागतः परिनिर्वाणमादर्शपति वैनेयवशेन । तथागत का प्रादुर्भाव दुर्लम है। यह बताने से वे लोग वीर्यारंभ में उत्साहित होते हैं। इसीलिए मैं परिनिर्वाण को प्राप्त न होते हुए भी परिनिर्वाण को प्राप्त होता है । यह मृषावाद नहीं है; यह महाकरुणा है । सोलहवां पुण्यपर्याय-परिवर्त है। सत्रहवां अनुमोदना-पुण्यनिर्देश-परिवर्त है। उसमें कहा है कि जो इस सूत्र की अनुमोदना करेगा वह शक्रासन और ब्रह्मासन का लाभी होगा। अट्ठारहवें धर्मत्राणकानुशंस परिवर्त में इस सूत्र के धर्ममाणक के गुणों का वर्णन है । उन्नीसवें सदापरिभूत-परिवर्त में इस सूत्र के निन्दकों के विपाक बताये गये हैं। बीसवाँ तथागत धर्माभि- संस्कार परिवर्त है । इकीसवें धारणी-परिवर्त में इस धर्मपर्याय की रक्षावरणगुप्ति के लिए अनेक धारणी मंत्र दिये गये हैं। बाईसवें भैवज्यरान-पूर्व-योग-परिवर्त में भैषज्यराज बोधिसत्व की चर्या का वर्णन है । तेईसवें गद्गदस्वर-परिवर्त में गद्गदस्बर बोधिसत्व का संवाद है । चौबीसवें मन्तमुखपरिवर्त में अवलोकितेश्वर बोधिसत्व की महिमा का अद्भुत वर्णन है। भक्ति मार्ग की चरम कोटि यहाँ मिलती है। पच्चीसवें शुभव्यूहराज-पूर्वयोग-पारिवर्त में शुभव्यूह नाम के राना की कथा है । छन्बीसवें समन्तभद्रोत्साहन परिवर्त में बताया गया है कि समन्तभद्र नामक अन्य बुद्धक्षेत्र बोधिसत्व सद्धर्म-पुण्डरीक के श्रवण के लिए पद्धकूट पर्वत पर श्राता है । अन्तिम परिवर्त का नाम है श्रनुपरीन्दना-परिवतं । सद्धर्मपुण्डरीक का उपदेश करने पर भगवान् धर्मासन से उठे और उन्होंने सभी बोधिसत्वों को संबोधन करके कहा-हे कुलपुत्रों! असंख्य कस्यों से संपादित इस सम्यक्-संबोधि को मैं तुम्हें सौंपता हूँ। वह जैसे विपुल और विस्तार को प्राप्त हो ऐसा करो। सभी योधिसत्वों ने भगवान् का अभिनन्दन किया। यहां सद्धर्म-पुण्डरीक सूत्र समास होता है। सद्धर्म-पुण्डरीक सूत्र के इस संक्षिप्त अवलोकन से महायान बौद्ध-धर्म का हीनयान से संबन्ध स्पष्ट होता है । शारिपुत्र, मौद्गल्यायन जैसे धुरीण स्थविर अर्हतों को बुद्धयान को दीक्षा देने के लिए भगवान ने यह द्वितीय धर्मचक्रप्रवर्तन किया है। पालिग्रन्थों में भावान् का उपदेश दो प्रकार का बताया जाता है। एक केवल शीलकथा, दानकथा, श्रादि उपासकोचित धर्म की देशना है; दूसरी "सामुक्कसिका धम्मदेसना" है जिसमें चतुरायसत्य का उपदेश है