पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२३७

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ससममन्याय जो मितु होने योग्य व्यक्तियों को दिया जाता है। सद्धर्म-पुण्डरीक में चतुरार्यसत्य की देशना और सर्वश-ज्ञान-पर्यवसायी देशना यह दो देशनाएँ हैं । ये द्वितीय देशना भगवान् ने शारिपुत्र को पहले ही क्यों नहीं दी । इसका उत्तर यह है कि यह भगवान् का उपायकौशल्य है । दितीय देशना ही परमार्थ देशना है। इस द्वितीय धर्मचक्र प्रवर्तन में शारिपुत्र श्रादि सभी महास्थविर अहंतों को तथा महाप्रजापती गोतमी श्रादि स्थविरात्रों को श्राश्वासन दिया गया है कि वे सभी भविष्य में बुद्धत्व को प्राप्त होंगी। हीनयान में उपदिष्ट धर्म भी बुद्ध का ही है । उसे एकान्ततः मिथ्या नहीं कहा है । वह केवल उपाय-सत्य है। परमार्थ-सत्य तो बुद्ध्यान ही है। इस प्रकार महावस्तु और ललित-विस्तर में ही हम भगवान् का लोकोत्सर-स्वरूप देखते है। सद्धर्म-पुण्डरीक में यह स्वरूप अधिक स्पष्ट होता है सद्धर्म-पुण्डरीक में यद्यपि बुद्धयान और तथागत की महिमा का प्रधान वर्णन है तथापि इस ग्रन्थ के कुछ अध्यायों में अवलोकितेश्वर श्रादि बोधिसत्वों को जुद्ध के तुल्य स्थान दिया गया है। समन्तमुख-परिवर्त नाम के चौबीसवें परिवर्त में अवलोकितेश्वर बोधिसत्त्व की महाकरुणा का अद्भुत् वर्णन है। अन्य बोधिसत्व और अवलोकितेश्वर बोधिसत्व में अन्तर ह कि अवलोकितेश्वर बोधिसत्व ने बोधि की प्राप्ति की है, किन्तु जब तक संसार का एक भी सत्व दुःख में बद्ध रहेगा तबतक निर्वाण प्राप्त न करने का उनका संकल्प है। वास्तव में वे बुद्ध ही हैं, किन्तु लिम प्रकार अन्य बुद्ध निर्वाण को यथा समय प्राप्त होते हैं उस प्रकार अवलोकितेश्वर निर्वाण में प्रवेश न करेंगे। बे सदा बोधिसत्व की साधना से सम्पन्न है। इससे उनकी श्रेष्ठता कम नहीं होती । सद्धर्मपुण्डरीक में कहा है- यच्च कुलपुत्र द्वाषष्टीनां गंगानदीवालुकासमानां बुद्धानां भगवतां सत्कार कृत्वा पुण्या- मिसंस्कारो यश्चामलोकितेश्वरस्य बोधिसत्वस्य महासत्वस्यान्तश एकमपि नमस्कारं कुर्यानामधेयं च धारयेत्समोऽनधिकोऽनतिरेकः पुण्याभिसंस्कार उभयतो भवेत् । । सद्धर्म परिवर्त २४ ] अवलोकितेश्वर वोधिसत्व का नाम मात्र भी अनेक दुःखों और आपदाओं से रक्षण करता है । महान् अभिस्कन्ध से, कावती नदी के भय से, समुद्रप्रवास के समय कालिकावात से रक्षण करने की शक्ति एकमात्र अवलोकितेश्वर के नामोचारण में है। अवलोकितेश्वर की भक्ति में बोधिसत्व-उपासना का प्रबल प्रारंभ हम देखते हैं। कारबा-कारएड-ब्यूह नाम एक महायानसूत्र में इस बोधिसत्व की महिमा का गान है । इसे गुण-कारण्ड-ब्यूह भी कहते हैं । यह अन्य गद्य और पद्य दोनों में मिलता है। गद्य कारण्ड-ब्यूह को सत्यव्रतसामनमी ने ई० १८७३ में प्रकाशित किया था। पद्य कारगड-व्यूह में एक विशेष सिद्धान्त का उल्लेख है । सद्धर्म-पुण्डरीक में ही गौतमबुद्ध की,अनेक कल्पों के पहले ही, वीतरागता या बुद्धत्व की प्राप्ति का वर्णन मिलता है । पद्य कारएड-व्यूह में 'आदि-बुद्ध की कल्पना मिलती है। योगदर्शन के नित्यमुक्त और सर्वज्ञ ईश्वर की कल्पना से यह कल्पना मिलती जुलती है। इतना ही नहीं यह श्रादिबुद्ध जगत् का कर्ता भी है । 'समस्त-विश्व के