पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ससमध्याव दर्शन किया। उन लोक-धातुओं के प्रत्येक परमाणु तक का उन्हें दर्शन हुआ। इस प्रकार सर्वदुराधर्मों की परिनिष्पत्ति में वे भिक्षु प्रतिष्ठित हुए । तब मंजुश्री बोधिसत्व ने उन भिक्षुत्रों को सम्यक्संबोधि में प्रतिष्ठित करके दक्षिणापय के धन्याकर नाम के महानगर की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुंचने पर उन्होंने 'धर्मधातु- नयप्रभास' नाम के सूत्रान्त का प्रकाशन किया। वहां उनकी परिषद् में सुधन नाम का एक श्रेष्टिपुत्र बैठा था । उसने मंजुश्री बोधिसत्व से इस सूत्रान्त को सुना। अनुत्तर-सम्यक् संबोधि की अभिलाषा से उसका चित्त व्याकुल हुआ और उसने मंजुश्री के पास बोधिसत्व-चर्या की पूर्ति के उपदेश की प्राथना की। मंजुश्री ने सुधन श्रेष्टिपुत्र का साधुकार किया और कहा-साधु ! साधु । कुलपुत्र ! यह अमिनन्दनीय है कि तुमने अनुत्तरा-सम्यक्-संबोधि में चित्त उत्पन्न किया है और अब बोधिसत्व-मार्ग को पूर्ण करना चाहते हो। हे कुलपुत्र ! सर्वज्ञता-परिनिष्पत्ति का श्रादि और निष्यन्द है:--कल्याण-मित्रों का सेवन, भनन और पर्युपासन । इसी से हे कुलपुत्र ! बोधिसत्व के 'समन्तभद्रचर्यामण्डला की परिपूर्णता होती है। हे कुलपुत्र ! इसी दक्षिणापथ के रामावतन्त जनपद में सुग्रीव नाम का पर्वत है । वहाँ मेघश्री नाम का भिन्तु है। तुम उसके पास जाकर बोधिसत्वचर्या को पूछो, वह कल्याणमित्र तुम्हे 'समन्तभद्रचर्या-मण्डल' का उपदेश देगा। श्रार्य सुधन ने मंजुश्री से विदा ली और मेघश्री के पास पहुँचा । मेघश्री ने उसे सागर- मेष नामक भिक्षु के पास अन्य जनपद में भेजा । इस प्रकार करीब पचास भिन्न-भिन्न जगहों पर सुधन ने भिन्न-भिन्न कल्याणमित्रों की पर्युपासना की। प्रत्येक कल्याणमित्र ने उसका अभिनन्दन करके उसे बोधिसत्वचर्या में एक एक श्रेणी आगे बढ़ाया। अपनी अपनी साधना बतायी । भारतवर्ष के कोने-कोने में आर्य सुधन ने इस प्रकार चंक्रमण किया। उसने बुद्धमाता माया से और बुद्धपत्नी गोपा से भी भेंट की। गोपा से उसने जो प्रश्न पूछे हैं, वे बहुत ही गंभीर है उसने गोपा को अंजलिबद्ध होकर कहा-~ायें! मैंने अनुत्तरा-सम्यक्संबोधि में चित्त उत्पाद किया है, किन्तु बोधिसत्व संसार में संसरण करने पर भी संसार-दोषों से किस प्रकार लिप्त नहीं होते, यह मैं नहीं जानता । श्रायें ! बोधिसत्व सर्वधर्म-समता-स्वभाव को जानते हैं पर श्रावक- प्रत्येक बुद्धभूमि में पतित नहीं होते। वे बुद्धधर्मावभास-प्रतिलब्ध होते है किन्तु बोधिसत्वचर्या का व्यवच्छेद नहीं करते हैं । बोधिसत्व-भूमि में प्रतिष्ठित होकर भो तथागतविषय को सन्दर्शित करते हैं। सर्वलोक-गति से समतिकान्त होते हैं और सर्वलोक-गतियों में विचरण भी करते हैं। धर्मकायपरिनिष्पन्न होते हुए भी अनन्तवर्ण और रूपकाय का अभिनिहार करते हैं। अलक्षण धर्मपरायण होते हुए भी सर्ववर्णसंस्थान-युक साय का दर्शन देते हैं। अनमिलाप्य सर्वधर्म- स्वभाव को प्राप्त होते हुए भी सर्व वाक्पथ-निरुक्ति-उदाहारों से सत्वों को धर्म की देशना देते हैं, सर्वधों को निःसत्व बानते हुए भी सत्व धातुविनयप्रयोग से निवृत्त नहीं होते । सर्वधर्मों को अनुत्पाद-अनिरोष कहते हुए भी सर्वतथागत-पूजोपस्थान से विरत नहीं होते। सर्वधर्मों को अकर्म-अविपाक मानते है परन्तु कुशल-कर्माभिसंस्कार-प्रयोग से विरत नहीं होते। श्रायें।