पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२४३

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सप्तम अध्याय है कुलपुत्र ! मैंने तुझे मंक्षेप में बताया है। परन्तु हे कुलपुत्र ! तुम बोधिसत्वचर्या के बारे में उमा कल्याणमित्र मंजुश्री के पास जात्रो और प्रश्न कगे। वह मंजुश्री बोधिमत्त्व परमपारमिताप्राप्त है। तब गुधन ने परमभक्ति से मंजुश्री की प्रार्थना की । दश हजार योजन दूर पर स्थित मंजुश्री बोधिगाय ने महाकमगा। से प्रेग्निहो रमके मस्तक पर अपना आशीर्वाद-दस्त रखकर उसका अभिनन्दन किया। उसे असंख्य धर्म में प्रतिष्ठित किया, अनन्तज्ञानमहावभाम को प्राप्त कराया, अपर्यन्तनीधिगम्य-धागी प्रतिमान ममाधि-अभिज्ञाजान से विभूपित किया और उसे ममन्तभद्रनगरान्टल में प्रतिदिन किया। इस प्रकार गगट्यूह में दम बोधिमन्न-पासना का अति मुन्दर वर्णन देखते हैं । भारा, वनशैली और कथाभाग की दृष्टि से यह ग्रन्थ अदभुत है । ललित-विनर, मद्धर्म-पुण्डरीक, कागदव्या. मात्रनायू और गगन थ्ट में गोधिमा सामना का प्रकार देखते हैं। बोधि- म बयान में बार-यूट ने कलश बहा दिया है। अाश्चर्य नहीं कि यह ग्रन्थ 'अवतमक सूत्र नाम से भी जानना है। g:- सूत्र के मान या बानियाका [क और मौलिक ग्रंथ है जिसे 'नर' गाने है । ति बनी कार में मा बट मंगहाल है। यह ४६. सूत्रों का एक संग्रहग्रन्थ है. मंधी-बुद्धो माग किमयपिटक, पिनापुत्र-मागम, काश्यप प, नअदि अनेट बाट मन्न समिनित हैं | तारानाथ के अनुसार मनट) पर्याय नारका अन्य ( जिसमें एक गहन्त्र अध्याय धे) कारक के पुत्र के समय में २५ा गया था। इसके कुछ मौलिक संस्कृत-माग ग्यतन के समीप मिले हैं। कुल विद्वानों का मा वि. ना.' और 'काश्यप-परिवत एक प्रन्थ हैं और एनकट में अन्य अन्यों का मंगद शद हुश्रा है I काश्यप परिवन में भगवान का मिन महापाप से न है । बोशिम:क्यान और शपता का सम बार बार उल्लेख याता है । "क जगह पर तो यहां तक कहा है कि तथागत में भी कायम ३ का पृना अधिक फलपद है । " काश्यप ! जिमप्रकार प्रतिपदा के चन्द्र की विशे पुजा होती है, पूर्णिमा के चन्द्र की विशेः पूना नहीं होती, उसी प्रकार मेरे अनुयायियों को चाहिश कि वे नशागत से भी विशेष पूजा भोधिसत्व की करें। क्योंकि तथागत बोधिसायों से झी उपन्न होते है। काश्यपपारख का चीनी अनुवाद इ. सन १७८ और १८४ के बीच किया गया था, ऐसी मान्यता है । ग्नकूट में अनेक परिपृच्छायें संगृहीत हैं । परिपृच्छा-प्रन्ध-राष्ट्रपाल परिपृच्छा में ६. परिवन हैं। प्रथम परिवर्त का नाम निदान- परिवर्त है। एक समय भावान् राजगृह में गृध्रकूट पर अनेक बोधिसत्वों के परिवार में वर्मदेशना देते थे। उस समय प्रामोद्यराज नाम के बोधिसत्व ने भगवान् की स्तुति की और अनिमेव नयनों से तथागत-काय को देखते हुए गम्भीर, दुवगाह, दुर्दर्श, दुरनुबोध, अतार्थ, तपित, शान्त, सूक्ष्म धर्मधातु का उसे विचार आया। उसने देखा कि म