पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२४४

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बौद-धर्म-दर्शन बुद्धभगवान् अनालयगगन-गोचर हैं। अनावरण-बुद्धविमोक्ष की उसने अभिलाषा की। भगवान् बुद्ध का काय ध्रुव, शिव और शाश्वत है । वह सर्वसत्वाभिमुख और सर्वबुद्धक्षेत्र-प्रसरानुगत है। इस गम्भीर धर्म का अवलोकन करके वह तूणीभूत हुआ और धर्मधातु का ही विचार करने लगा। तब आयुष्मान् राष्ट्रपाल श्रावस्ती से त्रैमास्य के अत्यय पर भगवान के दर्शन के लिए श्राया। अभिवादन कर उसने भगवान् को बोधिसत्यचर्या के बारे में प्रश्न किया। भगवान् ने उसे बोधिसत्वचर्या का उपदेश किया। यह सारा उपदेश पालि-अंगुत्तरनिकाय का अनुसरण है। हे राष्ट्रपाल ! चार धर्मों से भमन्वागत बोधिसत्व परिशुद्धि को प्राप्त होता है। कौन से चार ! अध्याशयप्रतिपत्ति, सर्वसत्वसमचित्तता, शून्यताभावना, और यथावादि-तथाकारिता । इन चार धर्मों से समन्वागत बोधिसत्व परिशुद्धि का प्रतिलाभ करता है । इसी प्रकार अन्य कई धों का उपदेश इस ग्रन्थ में पाया है। प्रथम परिवर्त के अन्त में भगवान् ने भविष्य का व्याकरण किया है कि बुद्धशासन विकृत होगा और भिक्षु असंयमी बनेंगे। यह व्याकरण हमें पालि के येरगाथा में श्राए हुए व्याकरणों को याद दिलाता है। अनात्मवाद को मानकर चलने में तब भी कितनी कठिनाई थी यह निम्न श्लोकों से प्रतीत होता है.--- यत्रात्म नास्ति न जीवो देशित पुद्गलोऽपि न कथंचित् । व्यर्थः श्रमोऽत्र घटते यः शीलप्रयोग संवरक्रिया च ॥ यद्यस्ति चैव महायानं नात्र हि अात्मसत्व मनुजो वा । व्यर्थः श्रमोऽत्र हि कृतो मे यंत्र न चात्मसत्यउपलब्धिः ।। द्वितीय परिवर्त में पुण्यरश्मि नाम के राजकुमार की जातक-कथा है । 'राष्ट्रपाल-परिपृच्छा' का चीनी भाषान्तर ई० ५८५ और ५६२ के बीच में हुआ था। इस ग्रन्थ का प्रकाशन एल. फिनो ने सन् १६.१ में किया है । उरगपरिपृच्छा, उदयन-वत्सराज- परिपृच्छा, उपालिपरिपृच्छा, चन्द्रोत्तरा-दारिका-परिपृच्छा, नैरात्म्यपरिपृच्छा आदि अनेक संवाद- अन्य भी उपलब्ध है, जिनका उल्लेख शिक्षा समुच्चय' में मिलता है । वसभूमीश्वर-को भी अवतंसक का एक भाग समझा जाता है । इस ग्रन्थ में दश- भूमियों का वर्णन है जिनसे बुद्धत्व की प्राप्ति होती है । 'महावस्तु' में इस सिद्धान्त का पूर्वरूप.. मिलता है । दशभूमक इस सिद्धान्त का सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ का चीनी अनुवाद धर्मरक्ष ने सन् २६७ ई. में किया था। प्रज्ञापारमितासूत्र महायान के वैपुल्यसूत्रों में दो प्रकार के अन्य पाये जाते हैं। एक में बोधिसत्व, बुदयान, की महत्ता बतलायी गयी है । ललित-विस्तर, सद्धर्म-पुण्डरीक श्रादि ग्रन्थ इस प्रकार के हैं। दूसरा प्रकार उन ग्रन्थों का है जिनमें महायान के मुख्य सिद्धान्त 'शून्यता' या 'प्रशा' की महत्ता बतायी गयी है। ऐसा मन्थ है 'प्रज्ञापारमिता सूत्रः । एक ओर शून्यता और दूसरी ओर महाकरुणा, इन दो सत्यों का समन्वय करने का प्रयत्न प्रज्ञापारमिता-सूत्र में दिखाई जुद्ध,