पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२४५

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सक्षम भध्याय देता है। आगे चलकर 'बोधिचर्यावतार में श्रार्य शान्तिदेव ने इसी समन्वय को व्यवस्थित किया है। महायान साहित्य में प्रज्ञापारमिता-सूत्रों का स्थान महत्व का है। इन्हें हम आगम-अन्य भी कह सकते हैं । इनकी संवाद-शैली प्राचीन है। दूसरे महायान-ग्रन्थों में बुद्ध प्रायः किसी बोधिसत्व से संवाद करते हैं। यहां बुद्ध, सुभूति नाम. स्थविर से प्रश्न करते हैं । शून्यता के बारे में इन ग्रन्थों में सुभूति और शारिपुत्र इन दो स्थविरों का संवाद बहुत ही ताल्लिक और गंभीर है । प्रज्ञापारमिता-सूत्रों की रचना भी प्राचीन है । ई० १७६ में प्रज्ञापारमिता-सूत्र का चीनी भाषान्तर हुश्रा था, जिससे संभव है कि खिम्तपूर्व काल में ही इनकी रचना हुई हो । नेपाली परम्परा के अनुसार मूल प्रज्ञापारमिता-महायान-सूत्र सवा लाख श्लोकों का या और क्रमशः घटा कर लह, पच्चीस हजार, दशहजार और पाठहजार श्लोकों का सूत्र-ग्रन्थ बना । दूसरी परम्परा के अनुसार मूलग्रन्थ आठ हजार श्लोकों का था जिसे 'अष्टसाहसिका प्रज्ञापार- मिता' कहते हैं। उसी को बढ़ाकर अनेक पारमिता ग्रन्थ बनाए, गप, । यह परम्परा अधिक ठीक जंचती है। शुश्रान-च्चाङ्ग ने अपने 'महाप्रज्ञा-पारमिता-सूत्र में बारह भिन्न-भिन्न प्रज्ञा-पारमिता- सूत्रों का अनुवाद किया है । चीनी और तिब्बती भाषा में इसके और भी अनेक प्रकार हैं, जिसमें एक लक्ष श्लोकों से लेकर 'एकाक्षरी प्रशा-पारमिता' भी संगृहीत हैं। संस्कृत में निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं.-१. शतमाहसिका प्रज्ञापारमिता, २. पंचविंशतिसाहसिका प्रज्ञापारमिता, ३. अष्टसाहसिका प्रज्ञापारमिता, ४. साद्विसाहसिका प्रज्ञापारमिता, ५, सप्तशतिका प्रशापारमिता, ६. वज्रच्छेदिका प्रज्ञापारमिता, ७. अल्पाक्षरा प्रज्ञापारमिता, ८, प्रज्ञापारमिता-हृदय-सूत्र । इन सभी ग्रन्थों में अष्टसाहसिका प्रज्ञापारमिता सूत्र ही सबसे प्राचीनतम है, जिसका वर्णन हम यहां करेंगे। प्रष्टसाहनिका प्रज्ञापारमिता-ग्रन्थ के कुल बत्तीस परिवन है। प्रथम परिवर्त का नाम है सर्वाकारताचर्या-परिवर्त । ग्रन्थ का प्रारंभ इस प्रकार होता है - "ऐसा मैंने सुना । एक समय भगवान् राजगृह में गृध्रकूट पर सार्धत्रयोदशशत अहंतों से परिवारित हो विराजमान थे। उस सभा में आयुष्मान् अानन्द को छोड़कर, शेष सभी अर्हत् कृतकृत्य थे। उस सभा में भगवान् ने आयुष्मान् सुभूति से कहा-हे सुभूति ! तुम्हें बोधिसत्व महासत्यों के प्रज्ञापारमिता की पूर्णता के बारे में प्रतिभान हो । भगवान् के इस वचन को सुनकर श्रायुष्मान् शारिपुत्र के मन में संदेह हुमा-क्या स्थविर सुभूति अपने सामर्थ्य से यह प्रतिभान करेंगे या बुद्धानुभाव से स्थविर सुभूति ने उनके मन की बात बुद्धानुभात्र से जानकर कहा-"आयुष्मान् शारिपुत्र ! चो कुछ भी श्रावक भाषण करते हैं, उपदेश करते हैं, या प्रकाशन करते हैं, वह सर्वथा तथागत का ही पुरुषकार है, क्योंकि हे शारिपुत्र ! धर्मता के बिलोम जो कुछ श्रावक कहेंगे वह बुद्धानुभाव ही है, बुद्धों से ही प्रथम उपदिष्ट है ।" तब अायुष्मान् सुभूति ने भगवान् को अंजलि-बद्ध होकर कहा--भगवन् ! बोधिसत्व- बोधिसत्व और प्रज्ञापारमिता-प्रशापारमिता, ऐसा कहा जाता है, किन्तु भगवन् ! किस धर्म का यह अधिवचन है । मैं ऐसे किसी धर्म को नहीं देखता हूँ, न जानता हूँ, जिसे मैं बोधिसत्व कह 3