पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२४६

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१२८ बौर-धर्म-दर्शन स. या जिसे प्रज्ञापारमिता कह सकूँ । ऐसा होने पर भी चित्त में विपाद न लाकर प्रज्ञापारमिता की भावना करते हुए, भी, बोधिसत्व को चाहिये कि वह उस बोधिचित्त को परमार्थतः न माने; क्योंकि यह चित्त अचित्त है; चित्त की प्रकृति प्रभास्वर हैं । ( तत्कस्य हेतोः । तथाहि तच्चित्त- मचित्तं प्रकृतिश्चित्तस्य प्रभास्वरा)। तब शारिपुत्र ने कहा - क्या आयुष्मन् सुभूति ! ऐमा भी कोई नित्त है जो अचित्त हो ? सुभूति ने कहा--क्या अाश्रुग्मन् शारिपुत्र ! जो अनिनता है उस अचित्तता में अस्तिता या नास्तिता की उपलब्धि होता है ? शारिपुत्र ने कहा नहीं । श्रायुप्मन् सुभूति ! यह 'अचित्तता क्या है 2 सुभूति ने कहा--अायुष्मन् । यह अचित्तता अश्किार अविकल्प है । ( अधिकारा- युष्मन् अविकल्पाऽचित्तता )। सुभूति का वचन सुनकर शारिपुत्र ने साधुवाद किया कि, हे अायुग्मन् ! श्रावकभूमि में भी, प्रत्येकबुद्धभूमि में भी और बोधिसत्यभूमि में भी जो शिना-काम है, उसे इसी प्रज्ञापारमिता का प्रवर्तन करना चाहिये । इसी प्रज्ञापारमिता में सर्वबोधिमान-धर्म उदिष्ट हैं। उणयकौशल्य से इसी का योग करणाय है । तब सुभूति ने भगवान् से फिर कहा--भगवन् ! मैं बोधिसत्व का कोई नामधे भी नहीं जान सकता हूँ; क्योंकि नामधेय भी अाविद्यमान है। बदन स्थित है, न अग्थित है; न विधित है न अविष्ठित है । और यह भी है भगवन् ! कि प्रज्ञापारमिता में विचरण करते को न रूप में, न वेदना में, न संज्ञा में, न संस्कार में,न विज्ञान में स्थित होना चाहिये । क्योंकि वह यदि रूप में स्थित होता है तो रूपाभिमस्कार में ही स्थित होता है, प्रज्ञापाला में स्थित नहीं होता । इसलिए प्रज्ञापारमिता की पूर्ति करने के इच्छुक बोधिमन्य को 'सर्वधर्मापरिगृहीत' नामक अप्रमाणनियत और असाधारण समाधि प्राप्ति करनी चाहिये । वह रूप का तथा संडा...'विज्ञान का परिग्रह नहीं करता । १... की प्रज्ञापारीमता है । वह प्रज्ञा को बिना पूर्ण किए अन्तरापरिनिर्वाण को भी प्राप्त नहीं करता,जबाक कि वह दश तथागतवलों से अपरि- पूर्ण हो । यह भी उसकी प्रज्ञापारमिता र यह धर्मता भी है कि रूस रूपस्वभाव से विरहित है, वेदना वेदना-स्वभाव से "विज्ञान विज्ञानस्वभाव से विरहित है। प्रज्ञापारमिता भी प्रज्ञापारमिता-स्वभाव से विरहित है। मईजना भी सर्वज्ञता-स्वभाव से विरहित है । लक्षण भी लक्षण-स्वभाव से विरहित है, स्वभाव भी स्वभाव से विरहित है। तब श्रायुध्मान शारिपुत्र ने सुभूति से प्रश्न किया-क्या अायुष्मन् ! जो बोधिसत्व यहाँ शिक्षित होगा, वह सर्वज्ञता को प्राप्त होगा ? सुभूति ने कहा-जो बोधिसत्व इस प्रज्ञापारमिता में. शिक्षित होगा वह सर्वज्ञता को प्राप्त होगा । क्यों हे श्रायुप्मन् ! सर्व धर्म अज्ञात है, अनिर्यात हैं । ऐसे जानने पर बोधिसत्व सर्वशता के श्रासन्न होता है। जैसे-जैसे वह सर्वज्ञता के अासन्न होता है वैसे-वैसे वह सत्व- परिपाचन, कायचित्तपरिशुद्धि, लक्षणपरिशुद्धि बुद्धक्षेत्रशुद्धि और बुद्धों से समवधान करता है । इस प्रकार हे आयुष्मन् । प्रज्ञापारमिता में विहार करने से सर्वना ग्रासन्न होती है । हुए बोधिसत्व