पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२४७

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सक्षम अध्याय तब शारिपुत्र ने भगवान से प्रश्न किया-भगवन् ! इस प्रकार शिक्षा पानेवाला बोधिसत्व किस धर्म में शिक्षा प्राप्त करता है ? भगवान् ने कहा-शारिपुत्र ! इस प्रकार शिक्षा पानेवाला किसी भी धर्म में शिक्षा नहीं पाता। क्यों; हे शारिपुत्र ! धर्म वैसे विद्यमान नहीं हैं जैसे बाल और पृथगजन उसमें अभिनिविष्ट है। शारिपुत्र ने पूछा----भगवन् ! धर्म कैसे विद्यमान हैं ? भगवान् ने कहा—जिस प्रकार वे संविद्यमान नहीं हैं, उस प्रकार चे मंविद्यमान है; अविद्यमान है; इसलिए कहा जाता है कि यह अविद्या है । उसमें बाल और पृथगजन अभिनिविष्ट है । उन्होंने अविद्यमान सर्वधर्मों की कल्पना की है। वे उनकी कल्पना करके दो अन्तों में मक्त होते हैं; अतीतानागत-प्रत्युत्पन्न- धर्मों की कल्पना करते हैं और नानारूपों में अभिनिविष्ट है। इस कारण वे मार्ग को नहीं जानते । यथाभूत मार्ग को बिना जाने में बंधातुक से मुक्त नहीं होंगे, और न वे भूतकोटि को जानेगे । इसलिए व बाल और पृथगजन है ! जो बोधिसत्व है, वह किसी भी धर्म में अभिनिवेश नहीं करता । हे शारिपुत्र ! वह बोधिसत्व सर्वज्ञता में भी शिक्षित नहीं होता और इसी कारण सर्वधर्मों में सदित होता है, सर्वज्ञता को प्राप्त होता है । तब अायुष्मान मुभूति ने भगवान् से प्रश्न किया--भगवन् ! जो ऐसा पूछे कि क्या मायापुरुष सर्वजता में शिक्षित होगा ? मर्वज्ञता को प्राप्त होगा ? ऐसे पूछे जाने पर क्या उत्तर दिया जाय ? ने कहा- "मुभूति ! मैं तुमसे ही प्रश्न करता हूं क्या वह माया अलग है,और रूप अलग है १ संज्ञा विज्ञान अलग है और माया अलग है ?" सुभूति ने कहा-'नहीं भगवान् ! रूप ही माया है, माया ही रूप है । .... विज्ञान है। माया है, माया ही विज्ञान है" । भगवान् ने कहा- तो क्या मुभूति, वहीं, इन पांच उपादान स्कन्धों में ही क्या यह संझा, प्राप्ति-व्यवहार नहीं है कि यह बोधिसत्य है ? मुभूति ने क. -भगवन् ! टीक ऐसा ही है । भगवान् ने रूपादि को मायोपम कहा है। यह पंचोपादान-स्कन्ध हा मावापुरुष है । किन्तु भगवन् ! नवयानसंस्थित बोधिमत्वों को यह उपदेश सुनकर संत्राम होगा। क्योकि भगवन् ! फिर बोधिसत्व, क्या पदार्थ है ? उसे क्यों महासत्य कहा जाता है ? भगवान् ने कहा - मुभूति ! बोधिसत्य पदार्थ अपदार्थ है। सर्वधमों में असक्तता में ही यह शिक्षित होता है । उसी से वह सम्यक-संबोधि को अभिसम्बुद्ध करता है । बोध्यर्थ से वह बोधिसत्व महासत्व कहा जाता है। महान् सत्वराशि में महान् सनिकाय में वह अग्रता को प्राप्त करता है, इसलिए वह महासल्व है। तब शारिपुत्र ने कहा-भगवन् ! मैं मानता हूँ कि आत्मदृष्टि, सत्वदृष्टि, जीव-पुद्गल- भव-विभव-उच्छेद-शाश्वत और मत्कायदृष्टि श्रादि महती दृष्टियों के प्रहाण के लिए धर्म का उपवेश करता है, इसलिए बोधिसत्व महासत्व कहा जाता है । तब सुभूति ने कहा--भगवन् ! बोधिचित्त जो सर्वज्ञतानित्त है, अभासव है और : भगवान्