पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२४९

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ससमध्याय श्रायुष्मान् सुभूति ने कहा-श्रायुष्मन् शारिपुत्र ! मैं नहीं चाहता कि बोधिसत्व दुष्कर- चारिका करें या दुष्कर-संशा को प्राप्त करें। दुष्करसंज्ञा से अप्रमेय और असंख्येय सत्त्वों की अर्थसिद्धि नहीं होती। इसलिए उस बोधिसत्व को सर्व सत्त्वों में सुखसंग, मातृ-पितृसंज्ञा उत्पन्न करनी चाहिये और अात्मविसर्जन करना चाहिए । ऐसा होने पर भी आपने जो कहा कि 'क्या बोधिसत्व अनुत्पाद है। १ तो मैं फिर से कहता हूँ कि हे श्रायुप्मन् ! ऐसा ही है; बोधिसत्व अनुत्पाद है। केवल बोधिसत्व ही नहीं, बोधिसत्व-धर्म भी, सर्वशता और सर्वज्ञता-धर्म भी, पृथग- जन और पृथगजन-धर्म भी अनुत्पाद ही है। आयुष्मान् शारिपुत्र ! यही सर्वधर्मानिश्रित पारमिता है, यही सर्वयानिकी पारमिता है जो 'प्रज्ञापारमिता है। ऐसी गम्भीर प्रज्ञापारमिता के उपदेश से जिसका चित्त द्विविधा को प्राप्त नहीं होता वही इस गम्भीर प्रशापारमिता को, इस श्रद्वय-ज्ञान को, प्राप्त करता है। भगवान् ने और आयुष्मान् शारिपुत्र ने आयुष्मान् मुभूति के इस बुद्धानुभाव से उक्त वचनों का साधुवाद से अभिनन्दन किया। अष्टसाहसिका प्रज्ञापारमिता सूत्र के इस प्रथम परिवर्त का संक्षेप यहाँ हमने दिया है। विराट-अनार निता में जिन वियों की चर्चा बार बार नाती है, उनका सारांश इसों परिवर्त में आ गया है । व्यवहारसत्य और परमार्थसत्य का एकत्र निरूपण करने से जो कटिनाइयां पैदा होती हैं, उनका प्रत्यय हमें अायुष्मान् शारिपुत्र और सुभूति के इस संवाद में मिलता है । स्थविर- वादी सुभूति और शारिपुत्र के ही द्वारा इस चर्चा का किया जाना और भी मार्मिक है । हीनयान के अर्हता से ही शून्यवाद की स्थापना कराने का यह प्रयत्न है । बोधिसत्व, महासत्व, महायान आदि शब्दों के भिन्न-भिन्न अर्थ इस परिवर्त में बताये गये हैं । अद्वयज्ञान में प्रतिष्ठित होना ही बोधिचर्या है । यह अद्वयज्ञान ही प्रज्ञा है । इस सिद्धान्त का प्रथम स्पष्ट दर्शन यहाँ होता है। इसी सिद्धान्त को नागार्जुन आदि प्राचयों ने व्यवस्थित रूप दिया । तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के अनुसार 'शतसाहसिला प्रज्ञापारमिता' नागार्जुन की कृति है। यह निश्चित है कि नागार्जुन के पहले ही ये ग्रन्थ अस्तित्व में थे। नागार्जुन ने इनपर टीकायें अवश्य लिखी हैं, जो चीनी भाषा में उपलब्ध हैं। नागार्जुन का 'प्रज्ञापारमितासूत्र-शास्त्रः ग्रन्थ पंचविंशति- साहसिका पारमिता की ही टीका है। पारमिताशास्त्रों को आगे चलकर 'भगवती' यह विशे- षण भी दिया गया है, जिससे इसकी महत्ता स्पष्ट होती है। लंकावतार-सूत्र महायान बौद्धधर्म प्रमुखतः शून्यवाद और विज्ञानवाद नाम के दो निकायों में विभक्त है । प्रज्ञापारमितासूत्र-मन्थों में हमने शून्यबाद-सिमान्त का अवलोकन किया है। विज्ञानवाद का प्रारंभ शून्यवाद के बाद और शून्यवाद के प्रात्यन्तिकता के विरोध में हुआ। 'लंकावतार- सूत्र' नामक वैपुल्य-सूत्रग्रन्थ विज्ञानवाद का मूल ग्रन्थ है। विज्ञान ही सत्य है, विज्ञान से भिन्न वस्तु की सत्ता नहीं है। यह इस बाद की मान्यता है । २