पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२५३

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भटममध्याय समय लिए चित्त का श्रावर्जन करते हैं । महावस्तु में तीन यानों का उल्लेख है, जैसे दिव्यावदान में श्रावक-बोधि, प्रत्येक-बोधि, और अनुत्तर-सम्यक्-सम्बोधि का उल्लेख है । हमने पहले देखा है कि इसमें बोधिसत्व की चार चर्याओं और दश भूमियों का भी उल्लेख है। किन्तु यह दश भूमियों दशभूमक-सूत्र की दश भूमियों बहुत कम समानता रखती हैं। महावस्तु महासांघिकों में लोकोत्तरवादियों का विनय-ग्रन्थ है । महामांधिक महायानियों के पूर्ववर्ती है, दशभूमक-सूत्र में भूमियों के दो विभाग किये गये है, पहली ६ भूमियों में बोधिसत्य पुद्गल-शून्यता का साक्षात्कार करता है ( यही श्रापक-बोधि है ) तथा अन्तिम ४ भूमियों में धर्मशून्यता का साक्षात्कार करता है । अतः ७वीं भूमि से ही महायान की साधना का प्रारंभ होता है। हीनयान के साहित्य में भी 'शून्यता' शब्द का प्रयोग पाया जाता है किन्तु महायान में इसका एक नया ही अर्थ है । महायान के त्रिकाय में से रूप-( या निर्माण ) काय और धर्मकाय दिव्यावदान और महावस्तु में भी पाये जाते हैं । दिव्यावदान में कहा है कि मैंने तो भगवत् का धर्मकाय देखा है, रूप-काय नहीं । धर्मकाय प्रवचन-काय है। यह बुद्ध का स्वाभाविक काय है। किन्तु महायान में धर्मकाय का एक भिन्न अर्थ है । त्रिकायबाद में हम इसका विस्तृत विवेचन कर चुके हैं। सर्वास्तिवादी की परिभाषा में युद्ध में नैर्माणिकी ऋद्धि थी। वह अपने सदृश अन्यरूप निर्मित कर सकते थे। दिव्यावदान में है कि शाक्यमुनि एक बुद्ध-पिंडी का निर्माण करते हैं किन्तु इन ग्रन्थों में संभोगकाय का नर्शन नहीं है। अतः महायान-धर्म का प्रारंभ उस में हुआ जब धर्म-शून्यता, धर्मकाय (-- यता) और संभोगकाय के विचार पहले पहल प्रविष्ट हुए । धर्म-शून्यता का नया सिद्धान्त को प्रथम प्रज्ञापारमिता ग्रन्थों में प्रतिपादित हुआ। अष्टमाहस्रिका में दो कायों का ही वर्णन है, नगार्जुन के महाप्रज्ञापारमिताशास्त्र में भी इन्हीं दो कायों का उल्लेख है ! धर्मकाय का दो अर्थ है १. धर्मों का समूह २. धर्मता । योगाचार में रूपकाय श्रौदारिक और सूक्ष्म दो प्रकार का है। प्रथम को रूप या निर्माण-काय कहते हैं द्वितीय को संभोग-काय कहते हैं । लकावतार सूत्र में संभोग-काय को नियन्द-बुद्ध या धर्मता- निष्यन्द-बुद्ध कहते हैं । सूत्रालंकार में निष्यन्द-बुद्ध को संभोग-काय और धर्मकाय को स्वाभाविक- काय कहा है। पंचविंशतिसाहसिका प्रज्ञापारमिता में संभोगकाय बुद्ध का सूक्ष्म-काय है, जिसके द्वारा बुद्ध बोधिसत्वों को उपदेश देते हैं । शतसाहसिका में संभागकाय को श्रासेचनक-काय कहा है; इसे प्रकृत्यात्मभाव भी कहते हैं । यह शरीर तेज का पुंज है। इस शरीर के प्रत्येक रोम- कूप से अनन्त रश्मि-राशि निःसृत होती है, जो अनन्त लोक-धातु को श्रवभासित करती है । तब बुद्ध अपने प्रकृयात्मभाव का देव-मनुष्य को दर्शन कराते हैं। सकल लोक-धातु के सब सत्व शाक्यमुनि बुद्ध को भिन्तुओं तथा बोधिसत्वों को प्रज्ञापारमिता का उपदेश देते देखते हैं। श्रत: पंचविंशतिसाहलिका में सबसे ... म संभोग-काय का उल्लेख पाया जाता है। नागार्जुन के समय तक संभोग-काय रूपकाय (अथवा निर्माण काय ) से पृथक् नहीं किया गया था। उस समय तक इस सांभोगिक काय को निर्मित मानते थे और इसलिए उसे रूपकाय के अन्तर्गत मानते थे। दश भूमियों का उल्लेख सब पहले महावस्तु में पाया जाता है। तदनन्तर