पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२६०

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चौर-धर्म-दर्शन के पर यह अर्थ उपयुक्त नहीं प्रतीत होता है। द्वितीया से द्वितीय सूत्रसमुच्चय से तात्पर्य है; क्योंकि श्लोक के प्रथम पाद में सूत्रसमुच्चय ही का का उल्लेख है । कर्न साहब के अनुसार दोनों ग्रन्थ नागार्जुन के हैं । (मैनुअल श्रॉफ इण्डियन बुद्धिज्म, पृष्ठ १२७, नोट ५) सी. बेण्डल साहब इसका अर्थ इस प्रकार लगाते है आर्य नागार्जुन-रचित सूत्रसमुच्चय अवश्य द्रष्टव्य है । यह श्रामणेर का द्वितीय अभ्यास है । (शिक्षासमुच्चय, सी. बेण्डल द्वारा रचित, १ बिब्लिओथिका बुद्धिका, पृष्ठ ४ सामने, नोट २) इस अर्थ के अनुसार शान्तिदेव अपने रचे किसी सूत्रसमुच्चय का उल्लेख नहीं करते। वास्तव में यह निर्णय करना कि कौन सा अर्थ ठीक है, असंभव सा है । नागार्जुन ने यदि इन नामों के कोई ग्रन्थ लिखे भी हों तो वे उपलब्ध नहीं हैं । शान्तिदेव ने यदि सूत्रसमुच्चय नामक ग्रन्थ रचा भी हो तो उसकी कोई प्रति नहीं मिलती, तंजोर इण्डेक्स (बर्लिन की प्रति जो कि इण्डिया ऑफिस द्वारा प्रमाणित है) में शान्तिदेव के एक चौथे ग्रन्थ का उल्लेख है । इसका नाम शारिपुत्र-अष्टक है, पर यह सन्दिग्ध है शिक्षासमुच्चय का संपादन सी. बण्डल महाशय द्वारा सेण्ट पिटर्सबर्ग की रूसी बिब्लिोथिका बुद्धिका मन्थमाला में सन् १८६७ ई० में हुया । दूसरा संस्करण १६०२ में हुश्रा । इसका अंग्रेजी अनुवाद सी. बेण्डल तथा डब्ल्यू. एच. डी. राउज द्वारा हुश्रा है और सन् १९२२ ई० में इण्डियन टेक्सट सिगन में प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तक का तिब्बती भाषा में अनुवाद ८१६ और ८३८ ई. के बीच हुश्रा था । अनु- वाद तीन महाशयों द्वारा हुश्रा था । इनके नाम ये हैं-जिनमित्र, दानशील, और एक तिब्बती पंडित ज्ञानसेन । ज्ञानसेन का चित्र तंजोर इंडेक्स के उस भाग के प्रारंभ में पाया नाता है, जिसमें शिक्षासमुच्चय है ( इण्डिया श्रॉफिस की प्रति) । अन्त के दो अनुवादक तिब्बती राजा रवी-दे-स-सान (८१६-८३८ ई.) के आश्रित थे। इससे प्रकट होता है कि मूल पुस्तक ८०० ई. से पूर्व लिखी गयी। शान्तिदेव का दूसरा ग्रन्थ जो प्रकाशित हो चुका है, बोधिचर्यावतार है। रूसी विद्वान् श्राई. पी. मिनायेव ने सबसे प्रथम इसे जापेस्की में प्रकाशित किया था। हरप्रसाद शास्त्री ने बुद्धिस टेक्स्ट सोसाइटी के जरनल में पीछे से प्रकाशित किया । प्रज्ञाकरमति की टीका (पंजिका) फ्रेंच अनुवाद के साथ ला वली पू ने बिल्लियोथिका इण्डिका में सन् १९.२ में प्रकाशित की। टीका एक प्रति जिसमें केवल ६ परिच्छेद की टोका थी, पूंसे ने लैंटिन अक्षरों में 'बुद्धिरम स्तदी एत मटीरियाँ १, (लन्दन, लुनाक) में प्रका- शित की थी। बोधिचर्यावतार टिपणी नाम की एक हस्तलिखित पोथी मिली है, पर यह खण्डित है। प्रोफेसर सी. बेण्डल को यह पोथी नेपाल दरबार लाइब्रेरी में मिली थी । सन् १८९३ ई. में शास्त्री जी को पंजिका की एक प्रति मिली थी, यह प्रतिलिपि नेवारी अक्षरों में सन् १०७८ ई में लिखी गई । लेखक का नाम नहीं है, पर प्रजाकरमति टीकाकार को तातपाद कहता है-इससे