पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२६१

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महममध्याय 10 जान पड़ता है कि वह टीकाकार का शिष्य था | प्रज्ञाकरमति विक्रमशिला विहार के प्राचार्य थे (एस. सी. विद्याभूषण लिखित इण्डियन लॉजिक, पृष्ठ १५१ ) और ११ वीं शताब्दी के श्रारंभ में हुए । मैथिल अक्षरों में केवल प्रज्ञापाठ परिच्छेद की टीका की एक प्रति भी उसी समय उपलब्ध हुई। टोकियो के प्रोफेसर ओमिगा का कहना है कि नांजियो के कैटलॉग में बोधिचर्यावतार की एक भिन्न व्याख्या है। तीन ताल पत्र मिले, जिममें शान्तिदेव का जीवन-चरित दिया है। (एशियाटिक सोसाइटी श्रॉफ बंगाल के सरकारी संग्रह नं. ६६६० में) ये पत्र १४ वी शताब्दी में काठमांडू में नेवारी अक्षरों में लिखे गये थे। इसमें लिखा है कि शान्तिदेव किसी राजा पुत्र थे। राजा का नाम मंजुबर्मा था। उनकी राजधानी का नाम मिट गया है, पढ़ा नहीं जाता। (तारानाथ का कहना है वह सुराष्ट्र के राजा का लड़का था। तारानाथ का समय इन तालपत्रों के समय से पीछे है)। शान्तिदेव महायान-धर्म का एक प्रसिद्ध शास्त्रकार हो गया है। दीपंकर ( अतीश) नागार्जुन, आर्यदेव, और अश्वघोष के साथ शान्तिदेव का भी नाम लेते हैं । तारानाथ और अन्य तिब्बती लेखक शान्तिदेव ने भली-भांति परिचित हैं । ('शान्तिदेवः हरप्रसाद शास्त्री द्वारा लिन्वित, एएटीक्वेरी, १६१३ पृष्ठ ४६-५७ जब उनका युवराज पद पर अभिषेक हुआ तब उनकी माता ने बताया कि राज्य केवल पाप में हेतु है । मां ने कहा- तुम यहां जानो, जहाँ बुद्ध और बोधिसत्व मिलें । मंजुवन के पास जाने से तुमको निःश्रेयस की प्राप्ति होगी। वह एक हरित वर्ण के घोड़े पर सवार होकर अपने पिता के राज्य से चला गया। कई दिनों तक वह खाना पीना भूल गया। गहन वन में एक सुन्दरी ने उसके घोड़े को पकड़ लिया और उसको उसपर से उतारा। उसने पीने के लिए अच्छा पानी दिया, और बकरी का मांस मूंजा। उसने कहा कि मैं मंजुवज्रसमाधि की शिष्या हूँ । शान्तिदेव प्रसन्न हुअा, क्योंकि वह उसी का शिष्य होना चाहता था। १२ वर्ष तक वह गुरु के समीप रहा और मंजुश्रीज्ञान का प्रतिलाम किया। शिक्षा की समाप्ति पर गुरु ने मध्यदेश जाने का आदेश किया। वहाँ वह अचलसेन नाम रखकर राउत' हो गया। देवदार काष्ठ का एक खड्ग बनवाया और राजा का शीघ्र ही प्रिय हो गया। अन्य राजभृत्य उससे ईर्ष्या करने लगे । उन्होंने राजा से निवेदन किया कि इसने देवदारु वृक्ष का एक खड्ग बनवाया है, यह किस प्रकार युद्ध में सेवा कर सकेगा। राजा ने सब राजभृत्यों के खगों को देखना चाहा । अचलसेन ने कहा कि मेरा खड्ग न देखा जाय । पर राजा नहीं माना और अचलसेन इस शर्त से एकान्त में दिखलाने के लिए तैयार हुआ कि वह एक नाँख बन्द कर देगा। राजा ने ज्योंही खड्ग देखा, उसकी आँख भूमि पर गिर पड़ी। राजा को आश्चर्य और प्रसन्नता हुई । अचलसेन ने खड्ग को पत्थर पर फेंक दिया। नालन्दा गया, और संसार का परित्याग किया। शान्तचित्त होने से 'शान्तिदेव' नाम पड़ा। उसने तीनों पिटकों को मुना। उसका नाम भुसुकु