पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दशम अध्याय महायान में साधना को नई दिशा महायान में उपदेशकों का अदम्य उत्साह और जीवों की अर्थचर्या की अमिट अभिलावा थी। उनका श्रादर्श अर्हत् के समान व्यक्तिगत निःश्रेयम् के लाभ का न था। पूर्णावदान में इस नए प्रकार के भिक्षु का चित्र हमको मिलता है। यह कथा पालि निकाय में भी है (संयुक्त ४,६०; मज्झिम ३,२६७)। किन्तु दिव्यावदान में इसका विकसित रूप मिलता है । दिव्यावदान के अनुसार पूर्ण जन्म से ही रूपवान् , गौर, सुवर्णवर्ण का था और वह महापुरुष के कुछ लक्षणों से समन्वागत । शाक्य मुनि ने उनको उपसंपदा की थी। उन्होंने बुद्ध से संक्षिप्त अववाद की देशना चाही । भगवत् ने देशनानन्तर पूछा कि तुम किस जनपद में विहार करोगे १ पूर्ण ने कहा-श्रोणारान्तक में । बुद्ध ने कहा-किन्नु वहाँ के लोग चण्ड हैं, परुपयाची है। यदि आक्रोश करें, तुम्हारा अपवाद करें, तो तुम क्या सोचोगे ? पूर्ण ने कहा-मैं सोचूंगा कि वे लोग भद्रक है, जो मुझे हाथ से नहीं मारते; केवल एरुप-वचन कहते हैं । बुद्ध ने फिर कहा, यदि वह हाथ से मारें, तो क्या सोचोगे ? पूर्ण ने कहा कि मैं सोचूंगा कि वे लोग भद्रक है, जो मुझे हाथ से मारते हैं, दण्ड से नहीं मारते । बुद्ध ने पुनः पूछा, यदि वे दण्ड से मारें ? पूर्ण ने कहा-तब मैं सोचूँगा कि भद्र-पुरुष हैं, जो मेरे प्राण नहीं हर लेते । और यदि वे प्राण हर लें ? पूर्ण ने कहा-तब मैं सोचूंगा कि वे भद्रपुरुष हैं, जो मुझे इस पूतिकाय (दुर्गन्धपूर्ण शरीर ) से अनायास हो विमुख करते हैं । बुद्ध ने कहा-साधु-साधु ! इस उपशम से, इस क्षान्तिपारमिता से समन्वागत हो, तुम उन चण्ड पुरुषों में विहार कर सकते हो । बानो पूर्ण ! दूसरों को विमुक्त करो । दूसरों को संसार के पार लगायो । पूर्ण का श्रादर्श बहत्त्व नहीं है । वह बोधिसत्व है, अर्थात् उसका अभिप्राय बोधि की प्राप्ति है । वह कुछ लक्षणों से अन्वित है, सब लक्षणों से नहीं; जैसे बुद्ध होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि पूर्ण बोधिचर्या में कुछ उन्नति कर चुका है । उष्णीय, अर्थ, उसके लम्बे हाथ, सब इसके चिह्न है। वह क्षान्ति-पारमिता से समन्वागत है। जब वह श्रोणापरान्तक में उपदेश का कार्य प्रारंभ करता है, तब लोग उसके साथ दुष्ट व्यवहार करते है । एक लुब्धक, जो पाखेट के लिए जा रहा था, इस मुण्डित भिन्तु को देखकर, उसे अपशकुन समझ, उसकी प्रोर दौड़ा। पूर्ण ने उससे कहा कि तुम मुझे मारो, हरिण का वध मत करो। यह नवीन प्रकार का भितु है, जो धर्म के प्रचार को सबसे अधिक महत्व देता है। इसमें सन्देह नहीं कि हीनयान के भिनुत्रों में भी इस प्रकार का उत्साह था, जैसे श्रानन्द में। किन्तु इस नए मितु