पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२७

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धारा से सुपरिचित है, वे इस ग्रन्थ के उपासना संबन्धी अध्यायों को पढ़कर देखेंगे कि बौद्ध उपासना पद्धति भी अन्य भारतीय साधना-धारा के अनुरूप भारतीय ही है। प्रस्थान-भेद के कारण अवान्तर भेद के होते हुए भी सर्वत्र निगूढ़ साम्य लक्षित होता है। वर्तमान समय में यह साम्यबोध अत्यन्त श्रावश्यक है । वैषम्य जगत् का स्वभाव है, किन्तु इसके हृदय में साम्य प्रतिष्ठित रहता है। बहु एक, विभक्त में अविभक्त तथा भेद में अभेद का साक्षात्कार होना चाहिये, इसी के लिए, शानी का संपूर्ण प्रयत्न है। साथ ही साथ इस प्रयत्न के फलस्वरूप एक में बहु, अविभक्त में विभक्त तथा अभेद में भी भेद दृष्टिगोचर होता है। ऐसी अवस्था में अवश्य ही भेदाभेद से अतीत, वाक् और मनस् से अगोचर, निर्विकल्पक परमसत्य का दर्शन होता है । प्रति व्यक्ति के जीवन में जो सत्य है, जातीय जीवन में भी वही सत्य है । यही बात समन मानव के लिए भी सत्य है। विरोध से अविरोध की श्रोर गति ही सर्वत्र उद्देश्य रहना चाहिये। श्राचार्य जी का यह ग्रन्थ ५ खण्डों और २० अध्यायों में विभक्त है। पहले खण्ड के पांच अध्यायों में बौद्ध-धर्म का उद्भव और स्थविरो की साधना वर्णित है। प्रथम अध्याय भारतीय संस्कृति की दो धाराएँ, बुद्ध का प्रादुर्भाव, उनके समसामयिक श्राचार्य, धर्मप्रसार, भगवान् का परिनिर्वाण आदि विषय वर्णित हैं। द्वितीय अध्याय में बुद्ध की शिक्षा की सार्व- भौमिकता, उनका मध्यम-मार्ग, शिक्षात्रय, पंनशील आदि प्रदर्शित है। तृतीय अध्याय में बुद्धदेशना की भाषा और उसका विस्तार बताया गया है। चतुर्थ में निकायों का विकास वर्णित है । पांचवें में समाधि का विस्तार पूर्वक वर्णन है । द्वितीय खण्ड के ५ अध्यायों का विषय महायान-धर्म और उसके दर्शन की उत्पत्ति और विकास, उसका साहित्य और साधना है। इस प्रकार छठे अध्याय में महायान-धर्म की उत्पत्ति और उसका त्रिकायवाद है। सातवें में बौद्ध संस्कृत-साहित्य का और संकर-संस्कृत का परिचय देकर पूरे महायान सूत्रों का विषय-परिचय कराया गया है । पाठ में महायान दर्शन की उत्पत्ति, उसके प्रधान प्राचार्यों की कृतियों का परिचय है। नर्वे में माहात्म्य, स्तोत्र, धारणी और तंत्रों का संक्षिप्त परिचय है । दसर्वे में विस्तार से महायान की बोधिचर्या और पारमितानी साधना वर्णित है। तृतीय खण्ड में बौद्ध दर्शन के सामान्य सिद्धान्तों का विस्तार से वर्णन है। इसमें एकादश से चतुर्दश तक चार अध्याय हैं । एकादश में बौद्ध दर्शन के सामान्य ज्ञान के लिए एक भूमिका है। द्वादश में प्रतीत्यसमुत्पाद, क्षणभंगवाद, अनीश्वरवाद तथा अनात्मवाद का तकपूर्ण सुन्दर परिचय है । प्रयोदश और चतुर्दश में क्रमशः बौद्धों के कर्मवाद और निर्वाण का महत्वपूर्ण बालोचन किया गया है । चतुर्थ खण्ड पंचदश से अनविंश तक ५ अध्यायों में विभक्त है । इस खण्ड में बौद्ध वर्शन के चार प्रस्थानों का विशिष्ट ग्रन्थों के आधार पर विषय परिचय और अन्य दर्शनी से