पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२७१

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दशमअभ्याय 151 महायान धर्म में महाकरुणा को सम्यक-संबोधि का साधन माना है। भगवान बुद्ध के चरित से भी महाकरुणा की उपयोगिता प्रकट होती है । 'महावा में वर्णित है कि जब भग- वान् को बोधि-वृक्ष के तले सम्बोधि प्राप्त हुई, तब धर्म-देशना में उनकी प्रवृत्ति न थी। उन्होंने सोचा कि लोग अन्धकार से आच्छन्न है, और राग-दोष से संयुक्त है। अतः श्म का प्रकाश नहीं देख सकते । यदि मैं इन्हें धर्मोपदेश भी करूँ, तब भी इनको सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति न होगी। बुद्ध का यह भाव जानकर ब्रह्मा सहंपत्ति को चिन्ता हुई कि यदि बुद्ध धर्मोपदेश न करेंगे तो संसार नष्ट हो जायगा । श्रार्तजन को दुःखार्णव के उस पार कौन ले जायगा, और धर्मनदी का प्रवर्तन कर, कौन जीवलोक की तृष्णा का उपशम करगा? यह विचार कर ब्रह्मा बुद्ध के सम्मुख प्रादुर्भूत हुए, और भगवान् से प्राथना की, कि भगवान् धर्म का उपदेश करें, नहीं तो जो लोग दोषपूर्ण हैं, वे धर्म का परित्याग कर देंगे । भगवान् ने कहा कि मैंने गंभीर और दुरनुबोध धर्म पाया है, पर धर्म-देशना में मेरा चित्त नहीं लगता । ब्रह्मा के विशेष प्रार्थना करने पर जीवों पर करुणा कर भगवान् ने बुद्ध-चक्षु से लोक को देखा, और जाना कि जीव दुःखादित है। अतः ब्रह्मा-सहंपति की प्राथना भगवान् ने स्वीकार की और सर्व-भृत-दया से प्रेरित हाकर सत्वों के कल्याण के लिए धर्मापदेश किया। जहाँ 'हीनयान' का अनुगामी केवल अपने दुःख का अत्यन्त निरोध चाहता है, वहाँ महायान धर्म का साधक बुद्ध के समान अपने ही नहीं, किन्तु सत्व-समूह के जन्म-मरणादि दुःखों का अपनयन चाहता है। बोधिवर्या (बुद्धत्व की प्राप्ति की साधना, जो पारमिता की साधना है ) का ग्रहण केवल इसी अभिप्राय से है कि जिसमें साधक सब चीजों का समुद्धरण करने में समर्थ हो । महायान का अनुगामी निर्वाण का अधिकारी होते हुए भी भूतदया से प्रेरित हो, संसार का उपकार करने के लिए अपने इस अपूर्व अधिकार का भी परियाग करता है । इसी कारण महायान ग्रन्थों में सप्तविध-अनुत्तर-पूजा का एक अंग 'बुद्ध-या-ना' कहा है, जिसमें निर्वाण की इच्छा रखने वाले कृतकृत्य-जनों से प्रार्थना की जाती है, कि वे अनन्त कल्प तक निवास करें; जिसमें यह लोक अन्धकार से बाच्छन न हो । हीनयान तथा महायाग की परस्पर तुलना करते हुए अष्टसाहनिकाप्रज्ञापारमिता के एकादश परिवर्त में कहा है कि हीनयान के अनुयायी का विचार होता है कि मैं एक आत्मा का दमन करूँ, एक अात्मा को शम की उपलब्धि कराऊँ और एक आत्मा को निर्वाण की प्राप्ति कराऊँ । उसकी सारी चेत्राएँ, इसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए होती हैं। पर बोधिसत्व की शिक्षा अन्य प्रकार की है। उसका अभिप्राय उदार और उत्कृष्ट है। वह अपने को परमार्थ-सत्य में स्थापित करना चाहता है, पर माथ ही साथ सन सत्वों की भी परमार्थ-सत्य में प्रतिष्ठा चाहता है। वह अप्रमेय सत्वों को परिनिर्वाण की प्राप्ति कराने के लिए. उद्योग करता है, इसलिए बोधिसत्व को हीनयान की शिक्षा ग्रहण न करनी चाहिए। सर्व ज्ञान के मूल-स्वरूप प्रशा-पारमिता को छोड़ कर जो शाखा-पत्र स्वरूप हीनयान में सार-वृद्धि देखते हैं, वह भूल