पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२७३

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इसम अध्याय धर्म-प्रविचय करना अशक्य है । इसीलिये इस सुअवसर को खोना न चाहिये । यदि हमने मनुष्य- भाव में अपने और पराये हित की चिन्ता न की तो ऐसा समागम हमको फिर प्राप्त न होगा। मनुष्य-भाव में भी अकुशल-पक्ष में अभ्यस्त होने के कारण साधारणतया मनुष्य की बुद्धि शुम- कर्म में रत नहीं होती । पुण्य सर्वकाल में दुर्बल है और पाप अत्यन्त प्रक्ल है। ऐसी अवस्था में प्रबल पाप पर विजय केवल किसी बलवान् पुण्य द्वारा ही प्राप्त हो सकती है । भगवान् बुद्ध ही लोगों की अस्थिर मति को एक मुहूर्त के लिए शुभकमों की ओर प्रेरित करते हैं । जिस प्रकार बादलों से घिरे हुए, श्राकाश-मण्डल में रात्रि के समय क्षणमात्र के विद्युत्प्रकाश से वस्तु-शान होता है, उसी प्रकार इस अंधकारमय जगत् में भगवत्कृपा से ही क्षणमात्र के लिए मानव-बुद्धि शुभ-कर्मो में प्रवृत्त होती है । वह बलवान् शुभ कौन सा है, जो घोरतम पाप को अपने तेज से अभिभूत करता है ? यह शुभ बोधिचित्त ही है। इससे बढ़कर पाप का प्रतिघातक और विरोधी दूसरा नहीं है । बोधिचित्त क्या १ सब जीवों के समुद्धरण के अभिप्राय से बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए सम्यक-सम्बोधि में चित्त का प्रतिष्टित होना, बोधिचित्त का ग्रहण करना है । एक बोधि- चित्त ही सर्वार्थसाधन की योग्यता रखता है। इसी के द्वारा अनेक जीव मवसागर के पार लगते है। बोधिचित्त का ग्रहण सदा सबके लिए आवश्यक है। इसका परित्याग किसी अवस्था में न होना चाहिये । जो प्रावक की तरह दुःख का अत्यन्त-निरोध चाहते हैं, जो बोधिसत्वों की तरह केवल अपने ही नहीं, किन्तु सत्वसमूह के दुःखों का अपनयन चाहते हैं, और जिनको दुःखाप- नयनमात्र नहीं, वरंच संसार सुख की भी अभिलाषा है; उन सबको सदा बोधिचित्त का ग्रहण करना चाहिये । शान्तिदेव बोधिचर्यावतार (प्रथम परिच्छेद, श्लोक -) में कहते हैं- भवदुःखशतानि ततुकामैरपि सत्वव्यसनानि हतुकामैः। बहुसौरव्यशतानि भोक्तकामैनं विमोच्य हि सदैव बोधिचित्तम् ।। बोधिचित्त के उदय के समय ही वह बुद्धपुत्र हो जाता है, और इस प्रकार देवता और मनुष्य सब उसकी वंदना और स्तुति करते हैं। जिस प्रकार एक पल रस, सहस पल लोहे को सोना बना देता है, उसी प्रकार बोधिचित्त एक प्रकार का रसधातु है, जो मनुष्य के अमेध्य- कलेवर और स्वभाव को बुद्ध-विग्रह और स्वभाव में परिवर्तित कर देता है । बोधिचित्त ग्रहण से पापशुद्धि होती है, ऐसा आर्य मैत्रेय ने विमोक्ष में कहा है । जिस प्रकार एक गुहा का सहस्रों वर्षों से सञ्चित अन्धकार प्रदीप के प्रवेशमात्र से ही नष्ट हो जाता है, और वहां प्रकाश हो जाता है, उसी प्रकार बोधिचित्त अनेक कल्पों के संचित पाप का ध्वंस और शान का प्रकाश करता है । यह केवल सर्व शुभ का संचय ही नहीं करता, वरंच उन समस्त दारुण और महान् पापों का एक क्षण में क्षय करता है, जो बोधिचित्त-ग्रहण के पूर्व किये गये हैं। बिस प्रकार कोई बड़ा अपराध करके भी किसी बलवान् की शरण में जाने से अपनी रक्षा करता है, उसी प्रकार बोधिचित्त का श्राश्रय ग्रहण करने से एक ही क्षण में पुण्यराशि का अनुपम लाभ होता है, और समस्त पाप का बस हो जाता है। बोधिचित्त के उत्पाद से प्रस्त आकाशधातु के समान व्यापक पुण्यराशि में पाप अन्तर्लीन हो जाता है; और जिस प्रकार सबल दुर्बल