पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२७५

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दशम मध्याय १५७ गन्ध- अपुण्यवानस्मि महादरिद्रः पूजार्थमन्यन्मम नास्ति किञ्चित् । अतो ममार्याय परार्थावत्तां गृह्णन्तु नाथा इदमात्मशक्त्या ।। [बोधि० परि० २,७] अर्थात् मैंने पुण्य नहीं किया है, मैं महादरिद्र हूँ, इसलिए पूजा को कोई सामग्री मेरे पास नहीं है। भगवान् महाकारुणिक हैं, सर्वभूत-हित में रत है। अतः इस पूजोपकरण को नाय ! ग्रहण करें । अकिंचन होने के कारण आकाशधातु का जहाँ तक विस्तार है, तत्पर्यन्त निरवशेष पुष्य, फल, भैषज्य, रत्न, जल, रत्नमय पर्वत, वनप्रदेश, पुष्पलता, वृक्ष, कल्पवृक्ष, मनोहर तटाक तथा जितनी अन्य उपहार वस्तुएँ प्राप्त हैं, उन सबको बुद्धों तथा बोधिसत्वों के प्रति वह दान करता है। यही अनुत्तर दक्षिणा है । यद्यपि वह अकिंचन है, पर अात्मभाव उसकी निज की सम्पत्ति है, उस पर उसका स्वामित्व है । इसलिए यह बुद्ध को प्रात्मभाव समर्पण करता है । भक्तिभाव से प्रेरित होकर यह दासभाव स्वीकार करता है । भगवान् के आश्रय में आने से वह निर्भय हो गया है। वह प्रतिज्ञा करता है कि अब मैं प्राणिमात्र का हित साधन करूँगा, पूर्वकृत पाप का अतिक्रमण करूँगा, और फिर पाप न करूँगा। मनोमय पूजा के अनंतर साधक बुद्ध, मधसत्य, सद्धर्म, चैत्य आदि की विशेष पूजा करता है । मनोरम स्नानगृह में पुष्प-पूर्ण रत्नमय कुम्भों के जल से गीत-बाय के साथ बुद्ध तथा बोधिसत्व को स्नान कराता है; स्नानानन्तर निर्मल वस्त्र से शरीर संमार्जन कर मुक्त, वासित वर-बीवर उनको प्रदान करता है। दिव्य अलंकारों से उनको विभूषित करता है; उत्तम उत्तम गन्ध-द्रव्य से शरीर का विलेपन करता है। तदनन्तर उनको माला से विभूषित करता है, धूप, दीपक तथा नैवेद्य अर्पित करता है । वह बुद्ध, धर्म और संघ की शरण में जाता है, तत्पश्चात् अपने सर्वपाप का प्रख्यापन करता है । इसे पापदेशना कहते हैं। जो कायिक, वाचिक, मानसिक पाप उसने स्वयं किया है अथवा दूसरे से कराया है अथवा जिसका अनुमोदन किया है, उन सब पापों को वह प्रकट करता है। अपना सब पाप वह बुद्ध के समक्ष प्रकाशित करता है, और भगवान् से प्रार्थना करता है कि भगवन् ! मेरी रक्षा करो । जब तक मैं पाप का क्षय न कर लूँ, तब तक मेरी मृत्यु न हो; नहीं तो मैं दुर्गति, अपाय में पहूँगा। मेरा इस अनित्य जीवन में विशेष आग्रह था। मैं यह नहीं जानता था कि मुझको नरकादि दुःख भोगना पड़ेगा । मैं यौवन, रूप, धनादि के मद से उन्मत्त था; इसलिए, मैंने अनेक पापों का अर्जन किया। मैंने चारों दिशाओं में घूम कर देखा कि कौन ऐसा साधु है, जो मेरी रक्षा करे, दिशाओं को त्राणशून्य देखकर मुझको संमोह हुश्रा और अन्त में मैंने यह निश्चय किया कि बुद्धों की शरण में जाऊँ, क्योंकि वह सामर्थ्यवान् है, संसार की रक्षा के लिए उपयुक्त हैं, और सबके त्रास के हरनेवाले हैं । मैं बुद्ध द्वारा साक्षात्कृत- धर्म की तथा बोधिसत्त्व-गण की भी शरण में जाता हूँ। मैं हाथ जोड़कर भगवान् के सम्मुख अपने समस्त उपार्जित पापों का प्रख्यापन करता हूँ, और प्रतिज्ञा करता हूँ कि अाज से कभी अनार्य या गर्हित कर्म न करूँगा। पापदेशना के अनन्तर साधक सर्वसत्त्वों के लौकिक शुभ-कर्म का प्रसादपर्वक अनुमोदन करता है तथा सब प्राणियों के सर्वदुःस्त्र-विनिमोक्ष का अनुमोदन करता है । इसे पुण्यानुमोदन