पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२७७

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दशमन्याय किसी वस्तु का ग्रहण न करना चाहिए, जिसमें उसकी त्याग-चित्तता उत्पन्न न हुई हो। निसको जिस वस्तु की आवश्यकता हो, उसको वह वस्तु बिना शोक किये, बिना फल की आकांना के, और बिना प्रतिसार के, दे दे। आशोचनविप्र'तिसारी अविपाकप्रतिकांक्षी परित्य- च्यामि । [ शिक्षासमुच्चय, पृ. २१] सांसारिक दुःख का मूल सर्वपरिग्रह है, अतः अपरिग्रह द्वारा भव-दुःख से विमुक्ति मिलती है । इस प्रकार बोधिसत्व अनन्त कल्प तक लौकिक तथा लोकोत्तर सुखसंपत्ति का अनु- भव करता है, और दूसरों का भी निस्तार करता है । इसीलिये रत्नमेव में कहा है-दानं हि बोधि- सत्वस्य बोधिरिति [ शिक्षासमुच्चय, पृ० ३४] । इस प्रकार श्रात्मभाव श्रादि का उत्सर्ग कर, अनाथ सत्ता पर दया कर, स्वयं दुःख उठाते हुए दूसरों के दुःख का विनाश करने के अभिप्राय से वह बुद्धत्व ही को उपाय ठहरा कर, वह बुद्धत्व के लिए बद्धपरिकर हो जाता है और अन्य पारमितानों का ग्रहण करता है। शीख-पारमिता-अात्मभाव का उत्सर्ग इसीलिए बताया गया है कि जिससे सब सत्व उसका उपभोग करें। पर यदि इस आत्मभाव की रक्षा न होगी तो दूसरे उसका उपभोग किस प्रकार करेंगे ? चीरदत्तपरिपृच्छा में कहा है :-- शकमिव भारोहनार्थ केवलं धर्मबुद्धिना वोढव्ययिति । । शिक्षासमुच्चय, पृ. ३४] अर्थात् यह समझकर, किं शकट की नाई केवल भारोदहन करना है, धर्मबुद्धि से शरीर की रक्षा करे, इसलिए अात्मभावााद का परिपालन अावश्यक है। यह शिक्षा की रक्षा और कल्याणमित्र के अपरित्याग से हो सकता है। कहा भी है- परिभोगाय सल्वानां आत्मभावादि दीयते । अरक्षिते कुतो भोगः कि दत्तं यन्न भुज्यते ॥ तस्मात्सत्योपभोगार्थ अात्मभावादि पालयत् । कल्याणमित्रानुत्सीत् सूत्राणां च सदेक्षणात् ॥ [शिक्षासमुच्चय, पृ० ३४] कल्याणमित्र के अपरित्याग से मनुष्य दुर्गति में नहीं पड़ता, कल्याण-मित्र प्रमाद स्थान से निवारण करता है। क्या करणीय है और क्या अकरणीय है, इसका ज्ञान शिक्षा की रक्षा से होता है, और विहित कर्म करने से और प्रतिषिद्ध के न करने से नरकादि विनिपात-गमन से रक्षा होती है। अात्मभावादि की रक्षा शिक्षा की रक्षा से होती है। शिक्षा की रक्षा चित्त की रक्षा से होती है। चित्त चलायमान है। यदि इसको स्वायत्त न किया जायगा तो शिक्षा की स्थिरता नष्ट हो जायगी । भय और दुःख का कारण चित्त ही है। चित्त द्वारा ही अर्थात् मानसकर्म द्वारा ही वाक-कर्म और काय-कर्म की उत्पत्ति होती है । अतः वाकायकर्म का चित्त ही समुत्थापक है ।